< אִיּוֹב 7 >
הֲלֹא־צָבָ֣א לֶאֱנ֣וֹשׁ עֲלֵי אָ֑רֶץ וְכִימֵ֖י שָׂכִ֣יר יָמָֽיו׃ | 1 |
“क्या इंसान के लिए ज़मीन पर जंग — ओ — जदल नहीं? और क्या उसके दिन मज़दूर के जैसे नहीं होते?
כְּעֶ֥בֶד יִשְׁאַף־צֵ֑ל וּ֝כְשָׂכִ֗יר יְקַוֶּ֥ה פָעֳלֽוֹ׃ | 2 |
जैसे नौकर साये की बड़ी आरज़ू करता है, और मज़दूर अपनी उजरत का मुंतज़िर रहता है;
כֵּ֤ן הָנְחַ֣לְתִּי לִ֭י יַרְחֵי־שָׁ֑וְא וְלֵיל֥וֹת עָ֝מָ֗ל מִנּוּ־לִֽי׃ | 3 |
वैसे ही मैं बुतलान के महीनों का मालिक बनाया गया हूँ, और मुसीबत की रातें मेरे लिए ठहराई गई हैं।
אִם־שָׁכַ֗בְתִּי וְאָמַ֗רְתִּי מָתַ֣י אָ֭קוּם וּמִדַּד־עָ֑רֶב וְשָׂבַ֖עְתִּי נְדֻדִ֣ים עֲדֵי־נָֽשֶׁף׃ | 4 |
जब मैं लेटता हूँ तो कहता हूँ, 'कब उठूँगा?' लेकिन रात लम्बी होती है; और दिन निकलने तक इधर — उधर करवटें बदलता रहता हूँ।
לָ֘בַ֤שׁ בְּשָׂרִ֣י רִ֭מָּה וְג֣וּשׁ עָפָ֑ר עוֹרִ֥י רָ֝גַ֗ע וַיִּמָּאֵֽס׃ | 5 |
मेरा जिस्म कीड़ों और मिट्टी के ढेलों से ढका है। मेरी खाल सिमटती और फिर नासूर हो जाती है।
יָמַ֣י קַ֭לּוּ מִנִּי־אָ֑רֶג וַ֝יִּכְל֗וּ בְּאֶ֣פֶס תִּקְוָֽה׃ | 6 |
मेरे दिन जुलाहे की ढरकी से भी तेज़ और बगै़र उम्मीद के गुज़र जाते हैं।
זְ֭כֹר כִּי־ר֣וּחַ חַיָּ֑י לֹא־תָשׁ֥וּב עֵ֝ינִ֗י לִרְא֥וֹת טֽוֹב׃ | 7 |
'आह, याद कर कि मेरी ज़िन्दगी हवा है, और मेरी आँख ख़ुशी को फिर न देखेगी।
לֹֽא־תְ֭שׁוּרֵנִי עֵ֣ין רֹ֑אִי עֵינֶ֖יךָ בִּ֣י וְאֵינֶֽנִּי׃ | 8 |
जो मुझे अब देखता है उसकी आँख मुझे फिर न देखेगी। तेरी आँखें तो मुझ पर होंगी लेकिन मैं न हूँगा।
כָּלָ֣ה עָ֭נָן וַיֵּלַ֑ךְ כֵּ֥ן יוֹרֵ֥ד שְׁ֝א֗וֹל לֹ֣א יַעֲלֶֽה׃ (Sheol ) | 9 |
जैसे बादल फटकर ग़ायब हो जाता है, वैसे ही वह जो क़ब्र में उतरता है फिर कभी ऊपर नहीं आता; (Sheol )
לֹא־יָשׁ֣וּב ע֣וֹד לְבֵית֑וֹ וְלֹא־יַכִּירֶ֖נּוּ ע֣וֹד מְקֹמֽוֹ׃ | 10 |
वह अपने घर को फिर न लौटेगा, न उसकी जगह उसे फिर पहचानेगी।
גַּם־אֲנִי֮ לֹ֤א אֶחֱשָׂ֫ךְ פִּ֥י אֲֽ֭דַבְּרָה בְּצַ֣ר רוּחִ֑י אָ֝שִׂ֗יחָה בְּמַ֣ר נַפְשִֽׁי׃ | 11 |
इसलिए मैं अपना मुँह बंद नहीं रख्खूँगा; मैं अपनी रूह की तल्ख़ी में बोलता जाऊँगा। मैं अपनी जान के 'ऐज़ाब में शिकवा करूँगा।
הֲֽיָם־אָ֭נִי אִם־תַּנִּ֑ין כִּֽי־תָשִׂ֖ים עָלַ֣י מִשְׁמָֽר׃ | 12 |
क्या मैं समन्दर हूँ या मगरमच्छ', जो तू मुझ पर पहरा बिठाता है?
כִּֽי־אָ֭מַרְתִּי תְּנַחֲמֵ֣נִי עַרְשִׂ֑י יִשָּׂ֥א בְ֝שִׂיחִ֗י מִשְׁכָּבִֽי׃ | 13 |
जब मैं कहता हूँ। मेरा बिस्तर मुझे आराम पहुँचाएगा, मेरा बिछौना मेरे दुख को हल्का करेगा।
וְחִתַּתַּ֥נִי בַחֲלֹמ֑וֹת וּֽמֵחֶזְיֹנ֥וֹת תְּבַעֲתַֽנִּי׃ | 14 |
तो तू ख़्वाबों से मुझे डराता, और दीदार से मुझे तसल्ली देता है;
וַתִּבְחַ֣ר מַחֲנָ֣ק נַפְשִׁ֑י מָ֝֗וֶת מֵֽעַצְמוֹתָֽי׃ | 15 |
यहाँ तक कि मेरी जान फाँसी, और मौत को मेरी इन हड्डियों पर तरजीह देती है।
מָ֭אַסְתִּי לֹא־לְעֹלָ֣ם אֶֽחְיֶ֑ה חֲדַ֥ל מִ֝מֶּ֗נִּי כִּי־הֶ֥בֶל יָמָֽי׃ | 16 |
मुझे अपनी जान से नफ़रत है; मैं हमेशा तक ज़िन्दा रहना नहीं चाहता। मुझे छोड़ दे क्यूँकि मेरे दिन ख़राब हैं।
מָֽה־אֱ֭נוֹשׁ כִּ֣י תְגַדְּלֶ֑נּוּ וְכִי־תָשִׁ֖ית אֵלָ֣יו לִבֶּֽךָ׃ | 17 |
इंसान की औकात ही क्या है जो तू उसे सरफ़राज़ करे, और अपना दिल उस पर लगाए;
וַתִּפְקְדֶ֥נּוּ לִבְקָרִ֑ים לִ֝רְגָעִ֗ים תִּבְחָנֶֽנּוּ׃ | 18 |
और हर सुबह उसकी ख़बर ले, और हर लम्हा उसे आज़माए?
כַּ֭מָּה לֹא־תִשְׁעֶ֣ה מִמֶּ֑נִּי לֹֽא־תַ֝רְפֵּ֗נִי עַד־בִּלְעִ֥י רֻקִּֽי׃ | 19 |
तू कब तक अपनी निगाह मेरी तरफ़ से नहीं हटाएगा, और मुझे इतनी भी मोहलत नहीं देगा कि अपना थूक निगल लें?
חָטָ֡אתִי מָ֤ה אֶפְעַ֨ל ׀ לָךְ֮ נֹצֵ֪ר הָאָ֫דָ֥ם לָ֤מָה שַׂמְתַּ֣נִי לְמִפְגָּ֣ע לָ֑ךְ וָאֶהְיֶ֖ה עָלַ֣י לְמַשָּֽׂא׃ | 20 |
ऐ बनी आदम के नाज़िर, अगर मैंने गुनाह किया है तो तेरा क्या बिगाड़ता हूँ? तूने क्यूँ मुझे अपना निशाना बना लिया है, यहाँ तक कि मैं अपने आप पर बोझ हूँ?
וּמֶ֤ה ׀ לֹא־תִשָּׂ֣א פִשְׁעִי֮ וְתַעֲבִ֪יר אֶת־עֲוֹ֫נִ֥י כִּֽי־עַ֭תָּה לֶעָפָ֣ר אֶשְׁכָּ֑ב וְשִׁ֖חֲרְתַּ֣נִי וְאֵינֶֽנִּי׃ פ | 21 |
तू मेरा गुनाह क्यूँ नहीं मु'आफ़ करता, और मेरी बदकारी क्यूँ नहीं दूर कर देता? अब तो मैं मिट्टी में सो जाऊँगा, और तू मुझे ख़ूब ढूँडेगा लेकिन मैं न हूँगा।”