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I understand that the Aionian Bible republishes public domain and Creative Commons Bible texts and that volunteers may be needed to present the original text accurately. I also understand that apocryphal text is removed and most variant verse numbering is mapped to the English standard. I have entered my corrections under the verse(s) below. Proposed corrections to the Hindi Contemporary Version Bible, Romans Chapter 12 https://www.AionianBible.org/Bibles/Hindi---Contemporary/Romans/12 1) प्रिय भाई बहिनो, परमेश्वर की बड़ी दया के प्रकाश में तुम सबसे मेरी विनती है कि तुम अपने शरीर को परमेश्वर के लिए परमेश्वर को भानेवाला जीवन तथा पवित्र बलि के रूप में भेंट करो. यही तुम्हारी आत्मिक आराधना की विधि है. 2) इस संसार के स्वरूप में न ढलो, परंतु मन के नए हो जाने के द्वारा तुममें जड़ से परिवर्तन हो जाए कि तुम परमेश्वर की इच्छा को, जो उत्तम, ग्रहण करने योग्य तथा त्रुटिहीन है, सत्यापित कर सको. (aiōn g165) 3) मुझे दिए गए बड़े अनुग्रह के द्वारा मैं तुममें से हर एक को संबोधित करते हुए कहता हूं कि कोई भी स्वयं को अधिक न समझे, परंतु स्वयं के विषय में तुम्हारा आंकलन परमेश्वर द्वारा दिए गए विश्वास के परिमाण के अनुसार हो. 4) यह इसलिये कि जिस प्रकार हमारे शरीर में अनेक अंग होते हैं और सब अंग एक ही काम नहीं करते; 5) उसी प्रकार हम, जो अनेक हैं, मसीह में एक शरीर तथा व्यक्तिगत रूप से सभी एक दूसरे के अंग हैं. 6) इसलिये कि हमें दिए गए अनुग्रह के अनुसार हममें पवित्र आत्मा द्वारा दी गई भिन्न-भिन्न क्षमताएं हैं. जिसे भविष्यवाणी की क्षमता प्राप्त है, वह उसका उपयोग अपने विश्वास के अनुसार करे; 7) यदि सेवकाई की, तो सेवकाई में; सिखाने की, तो सिखाने में; 8) उपदेशक की, तो उपदेश देने में; सहायता की, तो बिना दिखावे के उदारतापूर्वक देने में; जिसे अगुवाई की, वह मेहनत के साथ अगुवाई करे तथा जिसे करुणाभाव की, वह इसका प्रयोग सहर्ष करे. 9) प्रेम निष्कपट हो; बुराई से घृणा करो; आदर्श के प्रति आसक्त रहो; 10) आपसी प्रेम में समर्पित रहो; अन्यों को ऊंचा सम्मान दो; 11) तुम्हारा उत्साह कभी कम न हो; आत्मिक उत्साह बना रहे; प्रभु की सेवा करते रहो; 12) आशा में आनंद, क्लेशों में धीरज तथा प्रार्थना में नियमितता बनाए रखो; 13) पवित्र संतों की सहायता के लिए तत्पर रहो, आतिथ्य सत्कार करते रहो. 14) अपने सतानेवालों के लिए तुम्हारे मुख से आशीष ही निकले—आशीष—न कि शाप; 15) जो आनंदित हैं, उनके साथ आनंद मनाओ तथा जो शोकित हैं, उनके साथ शोक; 16) तुममें आपस में मेल भाव हो; तुम्हारी सोच में अहंकार न हो परंतु उनसे मिलने-जुलने के लिए तत्पर रहो, जो समाज की दृष्टि में छोटे हैं; स्वयं को ज्ञानवान न समझो. 17) किसी के प्रति भी दुष्टता का बदला दुष्टता न हो; तुम्हारा स्वभाव सब की दृष्टि में सुहावना हो; 18) यदि संभव हो तो यथाशक्ति सभी के साथ मेल बनाए रखो. 19) प्रियजन, तुम स्वयं बदला न लो—इसे परमेश्वर के क्रोध के लिए छोड़ दो, क्योंकि शास्त्र का लेख है: बदला लेना मेरा काम है, प्रतिफल मैं दूंगा. प्रभु का कथन यह भी है: 20) यदि तुम्हारा शत्रु भूखा है, उसे भोजन कराओ, यदि वह प्यासा है, उसे पानी दो; ऐसा करके तुम उसके सिर पर अंगारों का ढेर लगा दोगे. 21) बुराई से न हारकर बुराई को भलाई के द्वारा हरा दो. Additional comments?
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