< ज़बूर 119 >

1 आलेफ मुबारक हैं वह जो कामिल रफ़्तार है, जो ख़ुदा की शरी'अत पर 'अमल करते हैं!
אַשְׁרֵ֥י תְמִֽימֵי־דָ֑רֶךְ הַֽ֝הֹלְכִ֗ים בְּתוֹרַ֥ת יְהוָֽה׃
2 मुबारक हैं वह जो उसकी शहादतों को मानते हैं, और पूरे दिल से उसके तालिब हैं!
אַ֭שְׁרֵי נֹצְרֵ֥י עֵדֹתָ֗יו בְּכָל־לֵ֥ב יִדְרְשֽׁוּהוּ׃
3 उन से नारास्ती नहीं होती, वह उसकी राहों पर चलते हैं।
אַ֭ף לֹֽא־פָעֲל֣וּ עַוְלָ֑ה בִּדְרָכָ֥יו הָלָֽכוּ׃
4 तूने अपने क़वानीन दिए हैं, ताकि हम दिल लगा कर उनकी मानें।
אַ֭תָּה צִוִּ֥יתָה פִקֻּדֶ֗יךָ לִשְׁמֹ֥ר מְאֹֽד׃
5 काश कि तेरे क़ानून मानने के लिए, मेरी चाल चलन दुरुस्त हो जाएँ!
אַ֭חֲלַי יִכֹּ֥נוּ דְרָכָ֗י לִשְׁמֹ֥ר חֻקֶּֽיךָ׃
6 जब मैं तेरे सब अहकाम का लिहाज़ रख्खूँगा, तो शर्मिन्दा न हूँगा।
אָ֥ז לֹא־אֵב֑וֹשׁ בְּ֝הַבִּיטִ֗י אֶל־כָּל־מִצְוֹתֶֽיךָ׃
7 जब मैं तेरी सदाक़त के अहकाम सीख लूँगा, तो सच्चे दिल से तेरा शुक्र अदा करूँगा।
א֭וֹדְךָ בְּיֹ֣שֶׁר לֵבָ֑ב בְּ֝לָמְדִ֗י מִשְׁפְּטֵ֥י צִדְקֶֽךָ׃
8 मैं तेरे क़ानून मानूँगा; मुझे बिल्कुल छोड़ न दे!
אֶת־חֻקֶּ֥יךָ אֶשְׁמֹ֑ר אַֽל־תַּעַזְבֵ֥נִי עַד־מְאֹֽד׃
9 बेथ जवान अपने चाल चलन किस तरह पाक रख्खे? तेरे कलाम के मुताबिक़ उस पर निगाह रखने से।
בַּמֶּ֣ה יְזַכֶּה־נַּ֭עַר אֶת־אָרְח֑וֹ לִ֝שְׁמֹ֗ר כִּדְבָרֶֽךָ׃
10 मैं पूरे दिल से तेरा तालिब हुआ हूँ: मुझे अपने फ़रमान से भटकने न दे।
בְּכָל־לִבִּ֥י דְרַשְׁתִּ֑יךָ אַל־תַּ֝שְׁגֵּ֗נִי מִמִּצְוֹתֶֽיךָ׃
11 मैंने तेरे कलाम को अपने दिल में रख लिया है ताकि मैं तेरे ख़िलाफ़ गुनाह न करूँ।
בְּ֭לִבִּי צָפַ֣נְתִּי אִמְרָתֶ֑ךָ לְ֝מַ֗עַן לֹ֣א אֶֽחֱטָא־לָֽךְ׃
12 ऐ ख़ुदावन्द! तू मुबारक है; मुझे अपने क़ानून सिखा!
בָּר֖וּךְ אַתָּ֥ה יְהוָ֗ה לַמְּדֵ֥נִי חֻקֶּֽיךָ׃
13 मैंने अपने लबों से, तेरे फ़रमूदा अहकाम को बयान किया।
בִּשְׂפָתַ֥י סִפַּ֑רְתִּי כֹּ֝֗ל מִשְׁפְּטֵי־פִֽיךָ׃
14 मुझे तेरी शहादतों की राह से ऐसी ख़ुशी हुई, जैसी हर तरह की दौलत से होती है।
בְּדֶ֖רֶךְ עֵדְוֹתֶ֥יךָ שַׂ֗שְׂתִּי כְּעַ֣ל כָּל־הֽוֹן׃
15 मैं तेरे क़वानीन पर ग़ौर करूँगा, और तेरी राहों का लिहाज़ रख्खूँगा।
בְּפִקֻּדֶ֥יךָ אָשִׂ֑יחָה וְ֝אַבִּ֗יטָה אֹרְחֹתֶֽיךָ׃
16 मैं तेरे क़ानून में मसरूर रहूँगा; मैं तेरे कलाम को न भूलूँगा।
בְּחֻקֹּתֶ֥יךָ אֶֽשְׁתַּעֲשָׁ֑ע לֹ֭א אֶשְׁכַּ֣ח דְּבָרֶֽךָ׃
17 गिमेल अपने बन्दे पर एहसान कर ताकि मैं जिन्दा रहूँ और तेरे कलाम को मानता रहूँ।
גְּמֹ֖ל עַֽל־עַבְדְּךָ֥ אֶֽחְיֶ֗ה וְאֶשְׁמְרָ֥ה דְבָרֶֽךָ׃
18 मेरी आँखे खोल दे, ताकि मैं तेरी शरीअत के 'अजायब देखूँ।
גַּל־עֵינַ֥י וְאַבִּ֑יטָה נִ֝פְלָא֗וֹת מִתּוֹרָתֶֽךָ׃
19 मैं ज़मीन पर मुसाफ़िर हूँ, अपने फ़रमान मुझ से छिपे न रख।
גֵּ֣ר אָנֹכִ֣י בָאָ֑רֶץ אַל־תַּסְתֵּ֥ר מִ֝מֶּ֗נִּי מִצְוֹתֶֽיךָ׃
20 मेरा दिल तेरे अहकाम के इश्तियाक में, हर वक़्त तड़पता रहता है।
גָּרְסָ֣ה נַפְשִׁ֣י לְתַאֲבָ֑ה אֶֽל־מִשְׁפָּטֶ֥יךָ בְכָל־עֵֽת׃
21 तूने उन मला'ऊन मग़रूरों को झिड़क दिया, जो तेरे फ़रमान से भटकते रहते हैं।
גָּ֭עַרְתָּ זֵדִ֣ים אֲרוּרִ֑ים הַ֝שֹּׁגִים מִמִּצְוֹתֶֽיךָ׃
22 मलामत और हिक़ारत को मुझ से दूर कर दे, क्यूँकि मैंने तेरी शहादतें मानी हैं।
גַּ֣ל מֵֽ֭עָלַי חֶרְפָּ֣ה וָב֑וּז כִּ֖י עֵדֹתֶ֣יךָ נָצָֽרְתִּי׃
23 उमरा भी बैठकर मेरे ख़िलाफ़ बातें करते रहे, लेकिन तेरा बंदा तेरे क़ानून पर ध्यान लगाए रहा।
גַּ֤ם יָֽשְׁב֣וּ שָׂ֭רִים בִּ֣י נִדְבָּ֑רוּ עַ֝בְדְּךָ֗ יָשִׂ֥יחַ בְּחֻקֶּֽיךָ׃
24 तेरी शहादतें मुझे पसन्द, और मेरी मुशीर हैं।
גַּֽם־עֵ֭דֹתֶיךָ שַׁעֲשֻׁעָ֗י אַנְשֵׁ֥י עֲצָתִֽי׃
25 दाल्थ मेरी जान ख़ाक में मिल गई: तू अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे ज़िन्दा कर।
דָּֽבְקָ֣ה לֶעָפָ֣ר נַפְשִׁ֑י חַ֝יֵּ֗נִי כִּדְבָרֶֽךָ׃
26 मैंने अपने चाल चलन का इज़हार किया और तूने मुझे जवाब दिया; मुझे अपने क़ानून की ता'लीम दे।
דְּרָכַ֣י סִ֭פַּרְתִּי וַֽתַּעֲנֵ֗נִי לַמְּדֵ֥נִי חֻקֶּֽיךָ׃
27 अपने क़वानीन की राह मुझे समझा दे, और मैं तेरे 'अजायब पर ध्यान करूँगा।
דֶּֽרֶךְ־פִּקּוּדֶ֥יךָ הֲבִינֵ֑נִי וְ֝אָשִׂ֗יחָה בְּנִפְלְאוֹתֶֽיךָ׃
28 ग़म के मारे मेरी जान घुली जाती है; अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे ताक़त दे।
דָּלְפָ֣ה נַ֭פְשִׁי מִתּוּגָ֑ה קַ֝יְּמֵ֗נִי כִּדְבָרֶֽךָ׃
29 झूट की राह से मुझे दूर रख, और मुझे अपनी शरी'अत इनायत फ़रमा।
דֶּֽרֶךְ־שֶׁ֭קֶר הָסֵ֣ר מִמֶּ֑נִּי וְֽתוֹרָתְךָ֥ חָנֵּֽנִי׃
30 मैंने वफ़ादारी की राह इख़्तियार की है, मैंने तेरे अहकाम अपने सामने रख्खे हैं।
דֶּֽרֶךְ־אֱמוּנָ֥ה בָחָ֑רְתִּי מִשְׁפָּטֶ֥יךָ שִׁוִּֽיתִי׃
31 मैं तेरी शहादतों से लिपटा हुआ हूँ, ऐ ख़ुदावन्द! मुझे शर्मिन्दा न होने दे!
דָּבַ֥קְתִּי בְעֵֽדְוֹתֶ֑יךָ יְ֝הוָ֗ה אַל־תְּבִישֵֽׁנִי׃
32 जब तू मेरा हौसला बढ़ाएगा, तो मैं तेरे फ़रमान की राह में दौड़ूँगा।
דֶּֽרֶךְ־מִצְוֹתֶ֥יךָ אָר֑וּץ כִּ֖י תַרְחִ֣יב לִבִּֽי׃
33 हे ऐ ख़ुदावन्द, मुझे अपने क़ानून की राह बता, और मैं आख़िर तक उस पर चलूँगा।
הוֹרֵ֣נִי יְ֭הוָה דֶּ֥רֶךְ חֻקֶּ֗יךָ וְאֶצְּרֶ֥נָּה עֵֽקֶב׃
34 मुझे समझ 'अता कर और मैं तेरी शरी'अत पर चलूँगा, बल्कि मैं पूरे दिल से उसको मानूँगा।
הֲ֭בִינֵנִי וְאֶצְּרָ֥ה תֽוֹרָתֶ֗ךָ וְאֶשְׁמְרֶ֥נָּה בְכָל־לֵֽב׃
35 मुझे अपने फ़रमान की राह पर चला, क्यूँकि इसी में मेरी ख़ुशी है।
הַ֭דְרִיכֵנִי בִּנְתִ֣יב מִצְוֹתֶ֑יךָ כִּי־ב֥וֹ חָפָֽצְתִּי׃
36 मेरे दिल की अपनी शहादतों की तरफ़ रुजू' दिला; न कि लालच की तरफ़।
הַט־לִ֭בִּי אֶל־עֵדְוֹתֶ֗יךָ וְאַ֣ל אֶל־בָּֽצַע׃
37 मेरी आँखों को बेकारी पर नज़र करने से बाज़ रख, और मुझे अपनी राहों में ज़िन्दा कर।
הַעֲבֵ֣ר עֵ֭ינַי מֵרְא֣וֹת שָׁ֑וְא בִּדְרָכֶ֥ךָ חַיֵּֽנִי׃
38 अपने बन्दे के लिए अपना वह क़ौल पूरा कर, जिस से तेरा खौफ़ पैदा होता है।
הָקֵ֣ם לְ֭עַבְדְּךָ אִמְרָתֶ֑ךָ אֲ֝שֶׁ֗ר לְיִרְאָתֶֽךָ׃
39 मेरी मलामत को जिस से मैं डरता हूँ दूर कर दे; क्यूँकि तेरे अहकाम भले हैं।
הַעֲבֵ֣ר חֶ֭רְפָּתִי אֲשֶׁ֣ר יָגֹ֑רְתִּי כִּ֖י מִשְׁפָּטֶ֣יךָ טוֹבִֽים׃
40 देख, मैं तेरे क़वानीन का मुश्ताक़ रहा हूँ; मुझे अपनी सदाक़त से ज़िन्दा कर।
הִ֭נֵּה תָּאַ֣בְתִּי לְפִקֻּדֶ֑יךָ בְּצִדְקָתְךָ֥ חַיֵּֽנִי׃
41 वाव ऐ ख़ुदावन्द, तेरे क़ौल के मुताबिक़, तेरी शफ़क़त और तेरी नजात मुझे नसीब हों,
וִֽיבֹאֻ֣נִי חֲסָדֶ֣ךָ יְהוָ֑ה תְּ֝שֽׁוּעָתְךָ֗ כְּאִמְרָתֶֽךָ׃
42 तब मैं अपने मलामत करने वाले को जवाब दे सकूँगा, क्यूँकि मैं तेरे कलाम पर भरोसा रखता हूँ।
וְאֶֽעֱנֶ֣ה חֹרְפִ֣י דָבָ֑ר כִּֽי־בָ֝טַחְתִּי בִּדְבָרֶֽךָ׃
43 और हक़ बात को मेरे मुँह से हरगिज़ जुदा न होने दे, क्यूँकि मेरा भरोसा तेरे अहकाम पर है।
וְֽאַל־תַּצֵּ֬ל מִפִּ֣י דְבַר־אֱמֶ֣ת עַד־מְאֹ֑ד כִּ֖י לְמִשְׁפָּטֶ֣ךָ יִחָֽלְתִּי׃
44 फिर मैं हमेशा से हमेशा तक, तेरी शरी'अत को मानता रहूँगा
וְאֶשְׁמְרָ֖ה תוֹרָתְךָ֥ תָמִ֗יד לְעוֹלָ֥ם וָעֶֽד׃
45 और मैं आज़ादी से चलूँगा, क्यूँकि मैं तेरे क़वानीन का तालिब रहा हूँ।
וְאֶתְהַלְּכָ֥ה בָרְחָבָ֑ה כִּ֖י פִקֻּדֶ֣יךָ דָרָֽשְׁתִּי׃
46 मैं बादशाहों के सामने तेरी शहादतों का बयान करूँगा, और शर्मिन्दा न हूँगा।
וַאֲדַבְּרָ֣ה בְ֭עֵדֹתֶיךָ נֶ֥גֶד מְלָכִ֗ים וְלֹ֣א אֵבֽוֹשׁ׃
47 तेरे फ़रमान मुझे अज़ीज़ हैं, मैं उनमें मसरूर रहूँगा।
וְאֶשְׁתַּֽעֲשַׁ֥ע בְּמִצְוֹתֶ֗יךָ אֲשֶׁ֣ר אָהָֽבְתִּי׃
48 मैं अपने हाथ तेरे फ़रमान की तरफ़ जो मुझे 'अज़ीज़ है उठाऊँगा, और तेरे क़ानून पर ध्यान करूँगा।
וְאֶשָּֽׂא־כַפַּ֗י אֶֽל־מִ֭צְוֹתֶיךָ אֲשֶׁ֥ר אָהָ֗בְתִּי וְאָשִׂ֥יחָה בְחֻקֶּֽיךָ׃
49 ज़ैन जो कलाम तूने अपने बन्दे से किया उसे याद कर, क्यूँकि तूने मुझे उम्मीद दिलाई है।
זְכֹר־דָּבָ֥ר לְעַבְדֶּ֑ךָ עַ֝֗ל אֲשֶׁ֣ר יִֽחַלְתָּֽנִי׃
50 मेरी मुसीबत में यही मेरी तसल्ली है, कि तेरे कलाम ने मुझे ज़िन्दा किया
זֹ֣את נֶחָמָתִ֣י בְעָנְיִ֑י כִּ֖י אִמְרָתְךָ֣ חִיָּֽתְנִי׃
51 मग़रूरों ने मुझे बहुत ठठ्ठों में उड़ाया, तोभी मैंने तेरी शरी'अत से किनारा नहीं किया
זֵ֭דִים הֱלִיצֻ֣נִי עַד־מְאֹ֑ד מִ֝תּֽוֹרָתְךָ֗ לֹ֣א נָטִֽיתִי׃
52 ऐ ख़ुदावन्द! मैं तेरे क़दीम अहकाम को याद करता, और इत्मीनान पाता रहा हूँ।
זָ֘כַ֤רְתִּי מִשְׁפָּטֶ֖יךָ מֵעוֹלָ֥ם ׀ יְהוָ֗ה וָֽאֶתְנֶחָֽם׃
53 उन शरीरों की वजह से जो तेरी शरी'अत को छोड़ देते हैं, मैं सख़्त ग़ुस्से में आ गया हूँ।
זַלְעָפָ֣ה אֲ֭חָזַתְנִי מֵרְשָׁעִ֑ים עֹ֝זְבֵ֗י תּוֹרָתֶֽךָ׃
54 मेरे मुसाफ़िर ख़ाने में, तेरे क़ानून मेरी हम्द रहे हैं।
זְ֭מִרוֹת הָֽיוּ־לִ֥י חֻקֶּ֗יךָ בְּבֵ֣ית מְגוּרָֽי׃
55 ऐ ख़ुदावन्द, रात को मैंने तेरा नाम याद किया है, और तेरी शरी'अत पर 'अमल किया है।
זָ֘כַ֤רְתִּי בַלַּ֣יְלָה שִׁמְךָ֣ יְהוָ֑ה וָֽ֝אֶשְׁמְרָ֗ה תּוֹרָתֶֽךָ׃
56 यह मेरे लिए इसलिए हुआ, कि मैंने तेरे क़वानीन को माना।
זֹ֥את הָֽיְתָה־לִּ֑י כִּ֖י פִקֻּדֶ֣יךָ נָצָֽרְתִּי׃
57 हेथ ख़ुदावन्द मेरा बख़रा है; मैंने कहा है मैं तेरी बातें मानूँगा।
חֶלְקִ֖י יְהוָ֥ה אָמַ֗רְתִּי לִשְׁמֹ֥ר דְּבָרֶֽיךָ׃
58 मैं पूरे दिल से तेरे करम का तलब गार हुआ; अपने कलाम के मुताबिक़ मुझ पर रहम कर!
חִלִּ֣יתִי פָנֶ֣יךָ בְכָל־לֵ֑ב חָ֝נֵּ֗נִי כְּאִמְרָתֶֽךָ׃
59 मैंने अपनी राहों पर ग़ौर किया, और तेरी शहादतों की तरफ़ अपने कदम मोड़े।
חִשַּׁ֥בְתִּי דְרָכָ֑י וָאָשִׁ֥יבָה רַ֝גְלַ֗י אֶל־עֵדֹתֶֽיךָ׃
60 मैंने तेरे फ़रमान मानने में, जल्दी की और देर न लगाई।
חַ֭שְׁתִּי וְלֹ֣א הִתְמַהְמָ֑הְתִּי לִ֝שְׁמֹ֗ר מִצְוֹתֶֽיךָ׃
61 शरीरों की रस्सियों ने मुझे जकड़ लिया, लेकिन मैं तेरी शरी'अत को न भूला।
חֶבְלֵ֣י רְשָׁעִ֣ים עִוְּדֻ֑נִי תּֽ֝וֹרָתְךָ֗ לֹ֣א שָׁכָֽחְתִּי׃
62 तेरी सदाकत के अहकाम के लिए, मैं आधी रात को तेरा शुक्र करने को उठूँगा।
חֲצֽוֹת־לַ֗יְלָה אָ֭קוּם לְהוֹד֣וֹת לָ֑ךְ עַ֝֗ל מִשְׁפְּטֵ֥י צִדְקֶֽךָ׃
63 मैं उन सबका साथी हूँ जो तुझ से डरते हैं, और उनका जो तेरे क़वानीन को मानते हैं।
חָבֵ֣ר אָ֭נִי לְכָל־אֲשֶׁ֣ר יְרֵא֑וּךָ וּ֝לְשֹׁמְרֵ֗י פִּקּוּדֶֽיךָ׃
64 ऐ ख़ुदावन्द, ज़मीन तेरी शफ़क़त से मा'मूर है; मुझे अपने क़ानून सिखा!
חַסְדְּךָ֣ יְ֭הוָה מָלְאָ֥ה הָאָ֗רֶץ חֻקֶּ֥יךָ לַמְּדֵֽנִי׃
65 टेथ ऐ ख़ुदावन्द! तूने अपने कलाम के मुताबिक़, अपने बन्दे के साथ भलाई की है।
ט֭וֹב עָשִׂ֣יתָ עִֽם־עַבְדְּךָ֑ יְ֝הוָ֗ה כִּדְבָרֶֽךָ׃
66 मुझे सही फ़र्क़ और 'अक़्ल सिखा, क्यूँकि मैं तेरे फ़रमान पर ईमान लाया हूँ।
ט֤וּב טַ֣עַם וָדַ֣עַת לַמְּדֵ֑נִי כִּ֖י בְמִצְוֹתֶ֣יךָ הֶאֱמָֽנְתִּי׃
67 मैं मुसीबत उठाने से पहले गुमराह था; लेकिन अब तेरे कलाम को मानता हूँ।
טֶ֣רֶם אֶ֭עֱנֶה אֲנִ֣י שֹׁגֵ֑ג וְ֝עַתָּ֗ה אִמְרָתְךָ֥ שָׁמָֽרְתִּי׃
68 तू भला है और भलाई करता है; मुझे अपने क़ानून सिखा।
טוֹב־אַתָּ֥ה וּמֵטִ֗יב לַמְּדֵ֥נִי חֻקֶּֽיךָ׃
69 मग़रूरों ने मुझ पर बहुतान बाँधा है; मैं पूरे दिल से तेरे क़वानीन को मानूँगा।
טָפְל֬וּ עָלַ֣י שֶׁ֣קֶר זֵדִ֑ים אֲ֝נִ֗י בְּכָל־לֵ֤ב ׀ אֱצֹּ֬ר פִּקּוּדֶֽיךָ׃
70 उनके दिल चिकनाई से फ़र्बा हो गए, लेकिन मैं तेरी शरी'अत में मसरूर हूँ।
טָפַ֣שׁ כַּחֵ֣לֶב לִבָּ֑ם אֲ֝נִ֗י תּוֹרָתְךָ֥ שִֽׁעֲשָֽׁעְתִּי׃
71 अच्छा हुआ कि मैंने मुसीबत उठाई, ताकि तेरे क़ानून सीख लूँ।
טֽוֹב־לִ֥י כִֽי־עֻנֵּ֑יתִי לְ֝מַ֗עַן אֶלְמַ֥ד חֻקֶּֽיךָ׃
72 तेरे मुँह की शरी'अत मेरे लिए, सोने चाँदी के हज़ारों सिक्कों से बेहतर है।
טֽוֹב־לִ֥י תֽוֹרַת־פִּ֑יךָ מֵ֝אַלְפֵ֗י זָהָ֥ב וָכָֽסֶף׃
73 योध तेरे हाथों ने मुझे बनाया और तरतीब दी; मुझे समझ 'अता कर ताकि तेरे फ़रमान सीख लें।
יָדֶ֣יךָ עָ֭שׂוּנִי וַֽיְכוֹנְנ֑וּנִי הֲ֝בִינֵ֗נִי וְאֶלְמְדָ֥ה מִצְוֹתֶֽיךָ׃
74 तुझ से डरने वाले मुझे देख कर इसलिए कि मुझे तेरे कलाम पर भरोसा है।
יְ֭רֵאֶיךָ יִרְא֣וּנִי וְיִשְׂמָ֑חוּ כִּ֖י לִדְבָרְךָ֣ יִחָֽלְתִּי׃
75 ऐ ख़ुदावन्द, मैं तेरे अहकाम की सदाक़त को जानता हूँ, और यह कि वफ़ादारी ही से तूने मुझे दुख; में डाला।
יָדַ֣עְתִּי יְ֭הוָה כִּי־צֶ֣דֶק מִשְׁפָּטֶ֑יךָ וֶ֝אֱמוּנָ֗ה עִנִּיתָֽנִי׃
76 उस कलाम के मुताबिक़ जो तूनेअपने बन्दे से किया, तेरी शफ़क़त मेरी तसल्ली का ज़रिया' हो।
יְהִי־נָ֣א חַסְדְּךָ֣ לְנַחֲמֵ֑נִי כְּאִמְרָתְךָ֥ לְעַבְדֶּֽךָ׃
77 तेरी रहमत मुझे नसीब हो ताकि मैं ज़िन्दा रहूँ। क्यूँकि तेरी शरी'अत मेरी ख़ुशनूदी है।
יְבֹא֣וּנִי רַחֲמֶ֣יךָ וְאֶֽחְיֶ֑ה כִּי־תֽ֝וֹרָתְךָ֗ שַֽׁעֲשֻׁעָֽי׃
78 मग़रूर शर्मिन्दा हों, क्यूँकि उन्होंने नाहक़ मुझे गिराया, लेकिन मैं तेरे क़वानीन पर ध्यान करूँगा।
יֵבֹ֣שׁוּ זֵ֭דִים כִּי־שֶׁ֣קֶר עִוְּת֑וּנִי אֲ֝נִ֗י אָשִׂ֥יחַ בְּפִקּוּדֶֽיךָ׃
79 तुझ से डरने वाले मेरी तरफ़ रुजू हों, तो वह तेरी शहादतों को जान लेंगे।
יָשׁ֣וּבוּ לִ֣י יְרֵאֶ֑יךָ וְ֝יֹדְעֵ֗י עֵדֹתֶֽיךָ׃
80 मेरा दिल तेरे क़ानून मानने में कामिल रहे, ताकि मैं शर्मिन्दगी न उठाऊँ।
יְהִֽי־לִבִּ֣י תָמִ֣ים בְּחֻקֶּ֑יךָ לְ֝מַ֗עַן לֹ֣א אֵבֽוֹשׁ׃
81 क़ाफ मेरी जान तेरी नजात के लिए बेताब है, लेकिन मुझे तेरे कलाम पर भरोसा है।
כָּלְתָ֣ה לִתְשׁוּעָתְךָ֣ נַפְשִׁ֑י לִדְבָרְךָ֥ יִחָֽלְתִּי׃
82 तेरे कलाम के इन्तिज़ार में मेरी आँखें रह गई, मैं यही कहता रहा कि तू मुझे कब तसल्ली देगा?
כָּל֣וּ עֵ֭ינַי לְאִמְרָתֶ֑ךָ לֵ֝אמֹ֗ר מָתַ֥י תְּֽנַחֲמֵֽנִי׃
83 मैं उस मश्कीज़े की तरह हो गया जो धुएँ में हो, तोभी मैं तेरे क़ानून को नहीं भूलता।
כִּֽי־הָ֭יִיתִי כְּנֹ֣אד בְּקִיט֑וֹר חֻ֝קֶּ֗יךָ לֹ֣א שָׁכָֽחְתִּי׃
84 तेरे बन्दे के दिन ही कितने हैं? तू मेरे सताने वालों पर कब फ़तवा देगा?
כַּמָּ֥ה יְמֵֽי־עַבְדֶּ֑ךָ מָתַ֬י תַּעֲשֶׂ֖ה בְרֹדְפַ֣י מִשְׁפָּֽט׃
85 मग़रूरों ने जो तेरी शरी'अत के पैरौ नहीं, मेरे लिए गढ़े खोदे हैं।
כָּֽרוּ־לִ֣י זֵדִ֣ים שִׁיח֑וֹת אֲ֝שֶׁ֗ר לֹ֣א כְתוֹרָתֶֽךָ׃
86 तेरे सब फ़रमान बरहक़ हैं: वह नाहक़ मुझे सताते हैं; तू मेरी मदद कर!
כָּל־מִצְוֹתֶ֥יךָ אֱמוּנָ֑ה שֶׁ֖קֶר רְדָפ֣וּנִי עָזְרֵֽנִי׃
87 उन्होंने मुझे ज़मीन पर से फ़नाकर ही डाला था, लेकिन मैंने तेरे कवानीन को न छोड़ा।
כִּ֭מְעַט כִּלּ֣וּנִי בָאָ֑רֶץ וַ֝אֲנִ֗י לֹא־עָזַ֥בְתִּי פִקֻּודֶֽיךָ׃
88 तू मुझे अपनी शफ़क़त के मुताबिक़ ज़िन्दा कर, तो मैं तेरे मुँह की शहादत को मानूँगा।
כְּחַסְדְּךָ֥ חַיֵּ֑נִי וְ֝אֶשְׁמְרָ֗ה עֵד֥וּת פִּֽיךָ׃
89 लामेध ऐ ख़ुदावन्द! तेरा कलाम, आसमान पर हमेशा तक क़ाईम है।
לְעוֹלָ֥ם יְהוָ֑ה דְּ֝בָרְךָ֗ נִצָּ֥ב בַּשָּׁמָֽיִם׃
90 तेरी वफ़ादारी नसल दर नसल है; तूने ज़मीन को क़याम बख़्शा और वह क़ाईम है।
לְדֹ֣ר וָ֭דֹר אֱמֽוּנָתֶ֑ךָ כּוֹנַ֥נְתָּ אֶ֝֗רֶץ וַֽתַּעֲמֹֽד׃
91 वह आज तेरे अहकाम के मुताबिक़ क़ाईम हैं क्यूँकि सब चीजें तेरी ख़िदमत गुज़ार हैं।
לְֽ֭מִשְׁפָּטֶיךָ עָמְד֣וּ הַיּ֑וֹם כִּ֖י הַכֹּ֣ל עֲבָדֶֽיךָ׃
92 अगर तेरी शरी'अत मेरी ख़ुशनूदी न होती, तो मैं अपनी मुसीबत में हलाक हो जाता।
לוּלֵ֣י ת֭וֹרָתְךָ שַׁעֲשֻׁעָ֑י אָ֝֗ז אָבַ֥דְתִּי בְעָנְיִֽי׃
93 मैं तेरे क़वानीन को कभी न भूलूँगा, क्यूँकि तूने उन्ही के वसीले से मुझे ज़िन्दा किया है।
לְ֭עוֹלָם לֹא־אֶשְׁכַּ֣ח פִּקּוּדֶ֑יךָ כִּ֥י בָ֝֗ם חִיִּיתָֽנִי׃
94 मैं तेरा ही हूँ मुझे बचा ले, क्यूँकि मैं तेरे क़वानीन का तालिब रहा हूँ।
לְֽךָ־אֲ֭נִי הוֹשִׁיעֵ֑נִי כִּ֖י פִקּוּדֶ֣יךָ דָרָֽשְׁתִּי׃
95 शरीर मुझे हलाक करने को घात में लगे रहे, लेकिन मैं तेरी शहादतों पर ग़ौर करूँगा।
לִ֤י קִוּ֣וּ רְשָׁעִ֣ים לְאַבְּדֵ֑נִי עֵ֝דֹתֶ֗יךָ אֶתְבּוֹנָֽן׃
96 मैंने देखा कि हर कमाल की इन्तिहा है, लेकिन तेरा हुक्म बहुत वसी'अ है।
לְֽכָל תִּ֭כְלָה רָאִ֣יתִי קֵ֑ץ רְחָבָ֖ה מִצְוָתְךָ֣ מְאֹֽד׃
97 मीम आह! मैं तेरी शरी'अत से कैसी मुहब्बत रखता हूँ, मुझे दिन भर उसी का ध्यान रहता है।
מָֽה־אָהַ֥בְתִּי תוֹרָתֶ֑ךָ כָּל־הַ֝יּ֗וֹם הִ֣יא שִׂיחָתִֽי׃
98 तेरे फ़रमान मुझे मेरे दुश्मनों से ज़्यादा 'अक़्लमंद बनाते हैं, क्यूँकि वह हमेशा मेरे साथ हैं।
מֵ֭אֹ֣יְבַי תְּחַכְּמֵ֣נִי מִצְוֹתֶ֑ךָ כִּ֖י לְעוֹלָ֣ם הִיא־לִֽי׃
99 मैं अपने सब उस्तादों से 'अक़्लमंद हैं, क्यूँकि तेरी शहादतों पर मेरा ध्यान रहता है।
מִכָּל־מְלַמְּדַ֥י הִשְׂכַּ֑לְתִּי כִּ֥י עֵ֝דְוֹתֶ֗יךָ שִׂ֣יחָה לִֽֿי׃
100 मैं उम्र रसीदा लोगों से ज़्यादा समझ रखता हूँ क्यूँकि मैंने तेरे क़वानीन को माना है।
מִזְּקֵנִ֥ים אֶתְבּוֹנָ֑ן כִּ֖י פִקּוּדֶ֣יךָ נָצָֽרְתִּי׃
101 मैंने हर बुरी राह से अपने क़दम रोक रख्खें हैं, ताकि तेरी शरी'अत पर 'अमल करूँ।
מִכָּל־אֹ֣רַח רָ֭ע כָּלִ֣אתִי רַגְלָ֑י לְ֝מַ֗עַן אֶשְׁמֹ֥ר דְּבָרֶֽךָ׃
102 मैंने तेरे अहकाम से किनारा नहीं किया, क्यूँकि तूने मुझे ता'लीम दी है।
מִמִּשְׁפָּטֶ֥יךָ לֹא־סָ֑רְתִּי כִּֽי־אַ֝תָּ֗ה הוֹרֵתָֽנִי׃
103 तेरी बातें मेरे लिए कैसी शीरीन हैं, वह मेरे मुँह को शहद से भी मीठी मा'लूम होती हैं!
מַה־נִּמְלְצ֣וּ לְ֭חִכִּי אִמְרָתֶ֗ךָ מִדְּבַ֥שׁ לְפִֽי׃
104 तेरे क़वानीन से मुझे समझ हासिल होता है, इसलिए मुझे हर झूटी राह से नफ़रत है।
מִפִּקּוּדֶ֥יךָ אֶתְבּוֹנָ֑ן עַל־כֵּ֝֗ן שָׂנֵ֤אתִי ׀ כָּל־אֹ֬רַח שָֽׁקֶר׃
105 नून तेरा कलाम मेरे क़दमों के लिए चराग़, और मेरी राह के लिए रोशनी है।
נֵר־לְרַגְלִ֥י דְבָרֶ֑ךָ וְ֝א֗וֹר לִנְתִיבָתִֽי׃
106 मैंने क़सम खाई है और उस पर क़ाईम हूँ, कि तेरी सदाक़त के अहकाम पर'अमल करूँगा।
נִשְׁבַּ֥עְתִּי וָאֲקַיֵּ֑מָה לִ֝שְׁמֹ֗ר מִשְׁפְּטֵ֥י צִדְקֶֽךָ׃
107 मैं बड़ी मुसीबत में हूँ। ऐ ख़ुदावन्द! अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे ज़िन्दा कर।
נַעֲנֵ֥יתִי עַד־מְאֹ֑ד יְ֝הוָ֗ה חַיֵּ֥נִי כִדְבָרֶֽךָ׃
108 ऐ ख़ुदावन्द, मेरे मुँह से रज़ा की क़ुर्बानियाँ क़ुबूल फ़रमा और मुझे अपने अहकाम की ता'लीम दे।
נִדְב֣וֹת פִּ֭י רְצֵה־נָ֣א יְהוָ֑ה וּֽמִשְׁפָּטֶ֥יךָ לַמְּדֵֽנִי׃
109 मेरी जान हमेशा हथेली पर है, तोभी मैं तेरी शरी'अत को नहीं भूलता।
נַפְשִׁ֣י בְכַפִּ֣י תָמִ֑יד וְ֝תֽוֹרָתְךָ֗ לֹ֣א שָׁכָֽחְתִּי׃
110 शरीरों ने मेरे लिए फंदा लगाया है, तोभी मैं तेरे क़वानीन से नहीं भटका।
נָתְנ֬וּ רְשָׁעִ֣ים פַּ֣ח לִ֑י וּ֝מִפִּקּוּדֶ֗יךָ לֹ֣א תָעִֽיתִי׃
111 मैंने तेरी शहादतों को अपनी हमेशा की मीरास बनाया है, क्यूँकि उनसे मेरे दिल को ख़ुशी होती है।
נָחַ֣לְתִּי עֵדְוֹתֶ֣יךָ לְעוֹלָ֑ם כִּֽי־שְׂשׂ֖וֹן לִבִּ֣י הֵֽמָּה׃
112 मैंने हमेशा के लिए आख़िर तक, तेरे क़ानून मानने पर दिल लगाया है।
נָטִ֣יתִי לִ֭בִּי לַעֲשׂ֥וֹת חֻקֶּ֗יךָ לְעוֹלָ֥ם עֵֽקֶב׃
113 सामेख मुझे दो दिलों से नफ़रत है, लेकिन तेरी शरी'अत से मुहब्बत रखता हूँ।
סֵעֲפִ֥ים שָׂנֵ֑אתִי וְֽתוֹרָתְךָ֥ אָהָֽבְתִּי׃
114 तू मेरे छिपने की जगह और मेरी ढाल है; मुझे तेरे कलाम पर भरोसा है।
סִתְרִ֣י וּמָגִנִּ֣י אָ֑תָּה לִדְבָרְךָ֥ יִחָֽלְתִּי׃
115 ऐ बदकिरदारो! मुझ से दूर हो जाओ, ताकि मैं अपने ख़ुदा के फ़रमान पर'अमल करूँ!
סֽוּרוּ־מִמֶּ֥נִּי מְרֵעִ֑ים וְ֝אֶצְּרָ֗ה מִצְוֹ֥ת אֱלֹהָֽי׃
116 तू अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे संभाल ताकि ज़िन्दा रहूँ, और मुझे अपने भरोसा से शर्मिन्दगी न उठाने दे।
סָמְכֵ֣נִי כְאִמְרָתְךָ֣ וְאֶֽחְיֶ֑ה וְאַל־תְּ֝בִישֵׁ֗נִי מִשִּׂבְרִֽי׃
117 मुझे संभाल और मैं सलामत रहूँगा, और हमेशा तेरे क़ानून का लिहाज़ रखूँगा।
סְעָדֵ֥נִי וְאִוָּשֵׁ֑עָה וְאֶשְׁעָ֖ה בְחֻקֶּ֣יךָ תָמִֽיד׃
118 तूने उन सबको हक़ीर जाना है, जो तेरे क़ानून से भटक जाते हैं; क्यूँकि उनकी दग़ाबाज़ी 'बेकार है।
סָ֭לִיתָ כָּל־שׁוֹגִ֣ים מֵחֻקֶּ֑יךָ כִּי־שֶׁ֝֗קֶר תַּרְמִיתָֽם׃
119 तू ज़मीन के सब शरीरों को मैल की तरह छाँट देता है; इसलिए में तेरी शहादतों को 'अज़ीज़ रखता हूँ।
סִגִ֗ים הִשְׁבַּ֥תָּ כָל־רִשְׁעֵי־אָ֑רֶץ לָ֝כֵ֗ן אָהַ֥בְתִּי עֵדֹתֶֽיךָ׃
120 मेरा जिस्म तेरे ख़ौफ़ से काँपता है, और मैं तेरे अहकाम से डरता हूँ।
סָמַ֣ר מִפַּחְדְּךָ֣ בְשָׂרִ֑י וּֽמִמִּשְׁפָּטֶ֥יךָ יָרֵֽאתִי׃
121 ऐन मैंने 'अद्ल और इन्साफ़ किया है; मुझे उनके हवाले न कर जो मुझ पर ज़ुल्म करते हैं।
עָ֭שִׂיתִי מִשְׁפָּ֣ט וָצֶ֑דֶק בַּל־תַּ֝נִּיחֵ֗נִי לְעֹֽשְׁקָֽי׃
122 भलाई के लिए अपने बन्दे का ज़ामिन हो, मग़रूर मुझ पर ज़ुल्म न करें।
עֲרֹ֣ב עַבְדְּךָ֣ לְט֑וֹב אַֽל־יַעַשְׁקֻ֥נִי זֵדִֽים׃
123 तेरी नजात और तेरी सदाक़त के कलाम के इन्तिज़ार में मेरी आँखें रह गई।
עֵ֭ינַי כָּל֣וּ לִֽישׁוּעָתֶ֑ךָ וּלְאִמְרַ֥ת צִדְקֶֽךָ׃
124 अपने बन्दे से अपनी शफ़क़त के मुताबिक़ सुलूक कर, और मुझे अपने क़ानून सिखा।
עֲשֵׂ֖ה עִם־עַבְדְּךָ֥ כְחַסְדֶּ֗ךָ וְחֻקֶּ֥יךָ לַמְּדֵֽנִי׃
125 मैं तेरा बन्दा हूँ! मुझ को समझ 'अता कर, ताकि तेरी शहादतों को समझ लूँ।
עַבְדְּךָ־אָ֥נִי הֲבִינֵ֑נִי וְ֝אֵדְעָ֗ה עֵדֹתֶֽיךָ׃
126 अब वक़्त आ गया, कि ख़ुदावन्द काम करे, क्यूँकि उन्होंने तेरी शरी'अत को बेकार कर दिया है।
עֵ֭ת לַעֲשׂ֣וֹת לַיהוָ֑ה הֵ֝פֵ֗רוּ תּוֹרָתֶֽךָ׃
127 इसलिए मैं तेरे फ़रमान को सोने से बल्कि कुन्दन से भी ज़्यादा अज़ीज़ रखता हूँ।
עַל־כֵּ֭ן אָהַ֣בְתִּי מִצְוֹתֶ֑יךָ מִזָּהָ֥ב וּמִפָּֽז׃
128 इसलिए मैं तेरे सब कवानीन को बरहक़ जानता हूँ, और हर झूटी राह से मुझे नफ़रत है।
עַל־כֵּ֤ן ׀ כָּל־פִּקּ֣וּדֵי כֹ֣ל יִשָּׁ֑רְתִּי כָּל־אֹ֖רַח שֶׁ֣קֶר שָׂנֵֽאתִי׃
129 पे तेरी शहादतें 'अजीब हैं, इसलिए मेरा दिल उनको मानता है।
פְּלָא֥וֹת עֵדְוֹתֶ֑יךָ עַל־כֵּ֝֗ן נְצָרָ֥תַם נַפְשִֽׁי׃
130 तेरी बातों की तशरीह नूर बख़्शती है, वह सादा दिलों को 'अक़्लमन्द बनाती है।
פֵּ֖תַח דְּבָרֶ֥יךָ יָאִ֗יר מֵבִ֥ין פְּתָיִֽים׃
131 मैं खू़ब मुँह खोलकर हाँपता रहा, क्यूँकि मैं तेरे फ़रमान का मुश्ताक़ था।
פִּֽי־פָ֭עַרְתִּי וָאֶשְׁאָ֑פָה כִּ֖י לְמִצְוֹתֶ֣יךָ יָאָֽבְתִּי׃
132 मेरी तरफ़ तवज्जुह कर और मुझ पर रहम फ़रमा, जैसा तेरे नाम से मुहब्बत रखने वालों का हक़ है।
פְּנֵה־אֵלַ֥י וְחָנֵּ֑נִי כְּ֝מִשְׁפָּ֗ט לְאֹהֲבֵ֥י שְׁמֶֽךָ׃
133 अपने कलाम में मेरी रहनुमाई कर, कोई बदकारी मुझ पर तसल्लुत न पाए।
פְּ֭עָמַי הָכֵ֣ן בְּאִמְרָתֶ֑ךָ וְֽאַל־תַּשְׁלֶט־בִּ֥י כָל־אָֽוֶן׃
134 इंसान के ज़ुल्म से मुझे छुड़ा ले, तो तेरे क़वानीन पर 'अमल करूँगा।
פְּ֭דֵנִי מֵעֹ֣שֶׁק אָדָ֑ם וְ֝אֶשְׁמְרָ֗ה פִּקּוּדֶֽיךָ׃
135 अपना चेहरा अपने बन्दे पर जलवागर फ़रमा, और मुझे अपने क़ानून सिखा।
פָּ֭נֶיךָ הָאֵ֣ר בְּעַבְדֶּ֑ךָ וְ֝לַמְּדֵ֗נִי אֶת־חֻקֶּֽיךָ׃
136 मेरी आँखों से पानी के चश्मे जारी हैं, इसलिए कि लोग तेरी शरी'अत को नहीं मानते।
פַּלְגֵי־מַ֭יִם יָרְד֣וּ עֵינָ֑י עַ֝֗ל לֹא־שָׁמְר֥וּ תוֹרָתֶֽךָ׃
137 सांदे ऐ ख़ुदावन्द तू सादिक़ है, और तेरे अहकाम बरहक़ हैं।
צַדִּ֣יק אַתָּ֣ה יְהוָ֑ה וְ֝יָשָׁ֗ר מִשְׁפָּטֶֽיךָ׃
138 तूने सदाक़त और कमाल वफ़ादारी से, अपनी शहादतों को ज़ाहिर फ़रमाया है।
צִ֭וִּיתָ צֶ֣דֶק עֵדֹתֶ֑יךָ וֶֽאֱמוּנָ֥ה מְאֹֽד׃
139 मेरी गै़रत मुझे खा गई, क्यूँकि मेरे मुख़ालिफ़ तेरी बातें भूल गए।
צִמְּתַ֥תְנִי קִנְאָתִ֑י כִּֽי־שָׁכְח֖וּ דְבָרֶ֣יךָ צָרָֽי׃
140 तेरा कलाम बिल्कुल ख़ालिस है, इसलिए तेरे बन्दे को उससे मुहब्बत है।
צְרוּפָ֖ה אִמְרָתְךָ֥ מְאֹ֗ד וְֽעַבְדְּךָ֥ אֲהֵבָֽהּ׃
141 मैं अदना और हक़ीर हूँ, तौ भी मैं तेरे क़वानीन को नहीं भूलता।
צָעִ֣יר אָנֹכִ֣י וְנִבְזֶ֑ה פִּ֝קֻּדֶ֗יךָ לֹ֣א שָׁכָֽחְתִּי׃
142 तेरी सदाक़त हमेशा की सदाक़त है, और तेरी शरी'अत बरहक़ है।
צִדְקָתְךָ֣ צֶ֣דֶק לְעוֹלָ֑ם וְֽתוֹרָתְךָ֥ אֱמֶֽת׃
143 मैं तकलीफ़ और ऐज़ाब में मुब्तिला, हूँ तोभी तेरे फ़रमान मेरी ख़ुशनूदी हैं।
צַר־וּמָצ֥וֹק מְצָא֑וּנִי מִ֝צְוֹתֶ֗יךָ שַׁעֲשֻׁעָֽי׃
144 तेरी शहादतें हमेशा रास्त हैं; मुझे समझ 'अता कर तो मैं ज़िन्दा रहूँगा।
צֶ֖דֶק עֵדְוֹתֶ֥יךָ לְעוֹלָ֗ם הֲבִינֵ֥נִי וְאֶחְיֶֽה׃
145 क़ाफ मैं पूरे दिल से दुआ करता हूँ, ऐ ख़ुदावन्द, मुझे जवाब दे। मैं तेरे क़ानून पर 'अमल करूँगा।
קָרָ֣אתִי בְכָל־לֵ֭ב עֲנֵ֥נִי יְהוָ֗ה חֻקֶּ֥יךָ אֶצֹּֽרָה׃
146 मैंने तुझ से दुआ की है, मुझे बचा ले, और मैं तेरी शहादतों को मानूँगा।
קְרָאתִ֥יךָ הוֹשִׁיעֵ֑נִי וְ֝אֶשְׁמְרָ֗ה עֵדֹתֶֽיךָ׃
147 मैंने पौ फटने से पहले फ़रियाद की; मुझे तेरे कलाम पर भरोसा है।
קִדַּ֣מְתִּי בַ֭נֶּשֶׁף וָאֲשַׁוֵּ֑עָה לִדְבָרְךָ֥ יִחָֽלְתִּי׃
148 मेरी आँखें रात के हर पहर से पहले खुल गई, ताकि तेरे कलाम पर ध्यान करूँ।
קִדְּמ֣וּ עֵ֭ינַי אַשְׁמֻר֑וֹת לָ֝שִׂ֗יחַ בְּאִמְרָתֶֽךָ׃
149 अपनी शफ़क़त के मुताबिक़ मेरी फ़रियाद सुन: ऐ ख़ुदावन्द! अपने अहकाम के मुताबिक़ मुझे ज़िन्दा कर।
ק֭וֹלִי שִׁמְעָ֣ה כְחַסְדֶּ֑ךָ יְ֝הוָ֗ה כְּֽמִשְׁפָּטֶ֥ךָ חַיֵּֽנִי׃
150 जो शरारत के दर पै रहते हैं, वह नज़दीक आ गए; वह तेरी शरी'अत से दूर हैं।
קָ֭רְבוּ רֹדְפֵ֣י זִמָּ֑ה מִתּוֹרָתְךָ֥ רָחָֽקוּ׃
151 ऐ ख़ुदावन्द, तू नज़दीक है, और तेरे सब फ़रमान बरहक़ हैं।
קָר֣וֹב אַתָּ֣ה יְהוָ֑ה וְֽכָל־מִצְוֹתֶ֥יךָ אֱמֶֽת׃
152 तेरी शहादतों से मुझे क़दीम से मा'लूम हुआ, कि तूने उनको हमेशा के लिए क़ाईम किया है।
קֶ֣דֶם יָ֭דַעְתִּי מֵעֵדֹתֶ֑יךָ כִּ֖י לְעוֹלָ֣ם יְסַדְתָּֽם׃
153 रेश मेरी मुसीबत का ख़याल करऔर मुझे छुड़ा, क्यूँकि मैं तेरी शरी'अत को नहीं भूलता।
רְאֵֽה־עָנְיִ֥י וְחַלְּצֵ֑נִי כִּי־תֽ֝וֹרָתְךָ֗ לֹ֣א שָׁכָֽחְתִּי׃
154 मेरी वकालत कर और मेरा फ़िदिया दे: अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे ज़िन्दा कर।
רִיבָ֣ה רִ֭יבִי וּגְאָלֵ֑נִי לְאִמְרָתְךָ֥ חַיֵּֽנִי׃
155 नजात शरीरों से दूर है, क्यूँकि वह तेरे क़ानून के तालिब नहीं हैं।
רָח֣וֹק מֵרְשָׁעִ֣ים יְשׁוּעָ֑ה כִּֽי־חֻ֝קֶּיךָ לֹ֣א דָרָֽשׁוּ׃
156 ऐ ख़ुदावन्द! तेरी रहमत बड़ी है; अपने अहकाम के मुताबिक़ मुझे ज़िन्दा कर।
רַחֲמֶ֖יךָ רַבִּ֥ים ׀ יְהוָ֑ה כְּֽמִשְׁפָּטֶ֥יךָ חַיֵּֽנִי׃
157 मेरे सताने वाले और मुखालिफ़ बहुत हैं, तोभी मैंने तेरी शहादतों से किनारा न किया।
רַ֭בִּים רֹדְפַ֣י וְצָרָ֑י מֵ֝עֵדְוֹתֶ֗יךָ לֹ֣א נָטִֽיתִי׃
158 मैं दग़ाबाज़ों को देख कर मलूल हुआ, क्यूँकि वह तेरे कलाम को नहीं मानते।
רָאִ֣יתִי בֹ֭גְדִים וָֽאֶתְקוֹטָ֑טָה אֲשֶׁ֥ר אִ֝מְרָתְךָ֗ לֹ֣א שָׁמָֽרוּ׃
159 ख़याल फ़रमा कि मुझे तेरे क़वानीन से कैसी मुहब्बत है! ऐ ख़ुदावन्द! अपनी शफ़क़त के मुताबिक मुझे ज़िन्दा कर।
רְ֭אֵה כִּי־פִקּוּדֶ֣יךָ אָהָ֑בְתִּי יְ֝הוָ֗ה כְּֽחַסְדְּךָ֥ חַיֵּֽנִי׃
160 तेरे कलाम का ख़ुलासा सच्चाई है, तेरी सदाक़त के कुल अहकाम हमेशा के हैं।
רֹאשׁ־דְּבָרְךָ֥ אֱמֶ֑ת וּ֝לְעוֹלָ֗ם כָּל־מִשְׁפַּ֥ט צִדְקֶֽךָ׃
161 शीन उमरा ने मुझे बे वजह सताया है, लेकिन मेरे दिल में तेरी बातों का ख़ौफ़ है।
שָׂ֭רִים רְדָפ֣וּנִי חִנָּ֑ם וּ֝מִדְּבָרְךָ֗ פָּחַ֥ד לִבִּֽי׃
162 मैं बड़ी लूट पाने वाले की तरह, तेरे कलाम से ख़ुश हूँ।
שָׂ֣שׂ אָ֭נֹכִֽי עַל־אִמְרָתֶ֑ךָ כְּ֝מוֹצֵ֗א שָׁלָ֥ל רָֽב׃
163 मुझे झूट से नफ़रत और कराहियत है, लेकिन तेरी शरी'अत से मुहब्बत है।
שֶׁ֣קֶר שָׂ֭נֵאתִי וַאֲתַעֵ֑בָה תּוֹרָתְךָ֥ אָהָֽבְתִּי׃
164 मैं तेरी सदाक़त के अहकाम की वजह से, दिन में सात बार तेरी सिताइश करता हूँ।
שֶׁ֣בַע בַּ֭יּוֹם הִלַּלְתִּ֑יךָ עַ֝֗ל מִשְׁפְּטֵ֥י צִדְקֶֽךָ׃
165 तेरी शरी'अत से मुहब्बत रखने वाले मुत्मइन हैं; उनके लिए ठोकर खाने का कोई मौक़ा' नहीं।
שָׁל֣וֹם רָ֭ב לְאֹהֲבֵ֣י תוֹרָתֶ֑ךָ וְאֵֽין־לָ֥מוֹ מִכְשֽׁוֹל׃
166 ऐ ख़ुदावन्द! मैं तेरी नजात का उम्मीदवार रहा हूँ और तेरे फ़रमान बजा लाया हूँ।
שִׂבַּ֣רְתִּי לִֽישׁוּעָתְךָ֣ יְהוָ֑ה וּֽמִצְוֹתֶ֥יךָ עָשִֽׂיתִי׃
167 मेरी जान ने तेरी शहादतें मानी हैं, और वह मुझे बहुत 'अज़ीज़ हैं।
שָֽׁמְרָ֣ה נַ֭פְשִׁי עֵדֹתֶ֑יךָ וָאֹהֲבֵ֥ם מְאֹֽד׃
168 मैंने तेरे क़वानीन और शहादतों को माना है, क्यूँकि मेरे सब चाल चलन तेरे सामने हैं।
שָׁמַ֣רְתִּי פִ֭קּוּדֶיךָ וְעֵדֹתֶ֑יךָ כִּ֖י כָל־דְּרָכַ֣י נֶגְדֶּֽךָ׃
169 ताव ऐ ख़ुदावन्द! मेरी फ़रियाद तेरे सामने पहुँचे; अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे समझ 'अता कर।
תִּקְרַ֤ב רִנָּתִ֣י לְפָנֶ֣יךָ יְהוָ֑ה כִּדְבָרְךָ֥ הֲבִינֵֽנִי׃
170 मेरी इल्तिजा तेरे सामने पहुँचे, अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे छुड़ा।
תָּב֣וֹא תְּחִנָּתִ֣י לְפָנֶ֑יךָ כְּ֝אִמְרָתְךָ֗ הַצִּילֵֽנִי׃
171 मेरे लबों से तेरी सिताइश हो। क्यूँकि तू मुझे अपने क़ानून सिखाता है।
תַּבַּ֣עְנָה שְׂפָתַ֣י תְּהִלָּ֑ה כִּ֖י תְלַמְּדֵ֣נִי חֻקֶּֽיךָ׃
172 मेरी ज़बान तेरे कलाम का हम्द गाए, क्यूँकि तेरे सब फ़रमान बरहक़ हैं।
תַּ֣עַן לְ֭שׁוֹנִי אִמְרָתֶ֑ךָ כִּ֖י כָל־מִצְוֹתֶ֣יךָ צֶּֽדֶק׃
173 तेरा हाथ मेरी मदद को तैयार है क्यूँकि मैंने तेरे क़वानीन इख़्तियार, किए हैं।
תְּהִֽי־יָדְךָ֥ לְעָזְרֵ֑נִי כִּ֖י פִקּוּדֶ֣יךָ בָחָֽרְתִּי׃
174 ऐ ख़ुदावन्द! मैं तेरी नजात का मुश्ताक़ रहा हूँ, और तेरी शरी'अत मेरी ख़ुशनूदी है।
תָּאַ֣בְתִּי לִֽישׁוּעָתְךָ֣ יְהוָ֑ה וְ֝תֽוֹרָתְךָ֗ שַׁעֲשֻׁעָֽי׃
175 मेरी जान ज़िन्दा रहे तो वह तेरी सिताइश करेगी, और तेरे अहकाम मेरी मदद करें।
תְּֽחִי־נַ֭פְשִׁי וּֽתְהַֽלְלֶ֑ךָּ וּֽמִשְׁפָּטֶ֥ךָ יַעֲזְרֻֽנִי׃
176 मैं खोई हुई भेड़ की तरह भटक गया हूँ अपने बन्दे की तलाश कर, क्यूँकि मैं तेरे फ़रमान को नहीं भूलता।
תָּעִ֗יתִי כְּשֶׂ֣ה אֹ֭בֵד בַּקֵּ֣שׁ עַבְדֶּ֑ךָ כִּ֥י מִ֝צְוֹתֶ֗יךָ לֹ֣א שָׁכָֽחְתִּי׃

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