< مزامیر 74 >
قصیدۀ آساف. ای خدا، چرا برای همیشه ما را ترک کردهای؟ چرا بر ما که گوسفندان مرتع تو هستیم خشمگین شدهای؟ | 1 |
ऐ ख़ुदा! तूने हम को हमेशा के लिए क्यूँ छोड़ दिया? तेरी चरागाह की भेड़ों पर तेरा क़हर क्यूँ भड़क रहा है?
قوم خود را که در زمان قدیم از اسارت بازخریدی، به یاد آور. تو ما را نجات دادی تا قوم خاص تو باشیم. شهر اورشلیم را که در آن ساکن بودی، به یاد آور. | 2 |
अपनी जमा'अत को जिसे तूने पहले से ख़रीदा है, जिसका तूने फ़िदिया दिया ताकि तेरी मीरास का क़बीला हो, और कोह — ए — सिय्यून को जिस पर तूने सुकूनत की है, याद कर।
بر خرابههای شهر ما عبور کن و ببین دشمن چه بر سر خانهٔ تو آورده است! | 3 |
अपने क़दम दाइमी खण्डरों की तरफ़ बढ़ा; या'नी उन सब ख़राबियों की तरफ़ जो दुश्मन ने मक़दिस में की हैं।
دشمنانت در خانهٔ تو فریاد پیروزی سر دادند و پرچمشان را به اهتزاز درآوردند. | 4 |
तेरे मजमे' में तेरे मुख़ालिफ़ गरजते रहे हैं; निशान के लिए उन्होंने अपने ही झंडे खड़े किए हैं।
مانند هیزمشکنانی که با تبرهای خود درختان جنگل را قطع میکنند، | 5 |
वह उन आदमियों की तरह थे, जो गुनजान दरख़्तों पर कुल्हाड़े चलाते हैं;
تمام نقشهای تراشیده را با گرز و تبر خرد کردند | 6 |
और अब वह उसकी सारी नक़्शकारी को, कुल्हाड़ी और हथौड़ों से बिल्कुल तोड़े डालते हैं।
و خانهٔ مقدّس تو را به آتش کشیده با خاک یکسان نمودند. | 7 |
उन्होंने तेरे हैकल में आग लगा दी है, और तेरे नाम के घर को ज़मीन तक मिस्मार करके नापाक किया है।
عبادتگاههای تو را در سراسر خاک اسرائیل به آتش کشیدند تا هیچ اثری از خداپرستی برجای نماند. | 8 |
उन्होंने अपने दिल में कहा है, “हम उनको बिल्कुल वीरान कर डालें;” उन्होंने इस मुल्क में ख़ुदा के सब 'इबादतख़ानों को जला दिया है।
هیچ نبی در میان ما نیست که بداند این وضع تا به کی ادامه مییابد تا ما را از آن خبر دهد. | 9 |
हमारे निशान नज़र नहीं आते; और कोई नबी नहीं रहा, और हम में कोई नहीं जानता कि यह हाल कब तक रहेगा।
ای خدا، تا به کی به دشمن اجازه میدهی به نام تو اهانت کند؟ | 10 |
ऐ ख़ुदा, मुख़ालिफ़ कब तक ता'नाज़नी करता रहेगा? क्या दुश्मन हमेशा तेरे नाम पर कुफ़्र बकता रहेगा?
چرا دست خود را عقب کشیدهای و به داد ما نمیرسی؟ دست راست خود را از گریبان خود بیرون آور و دشمنانمان را نابود کن. | 11 |
तू अपना हाथ क्यूँ रोकता है? अपना दहना हाथ बाल से निकाल और फ़ना कर।
ای خدا، تو از قدیم پادشاه ما بودهای و بارها ما را نجات دادهای. | 12 |
ख़ुदा क़दीम से मेरा बादशाह है, जो ज़मीन पर नजात बख़्शता है।
تو دریا را به نیروی خود شکافتی، و سرهای هیولاهای دریا را شکستی. | 13 |
तूने अपनी क़ुदरत से समन्दर के दो हिस्से कर दिए तू पानी में अज़दहाओं के सिर कुचलता है।
سرهای لِویاتان را فروکوفتی، و آن را خوراک جانوران صحرا ساختی. | 14 |
तूने लिवियातान के सिर के टुकड़े किए, और उसे वीरान के रहने वालों की खू़राक बनाया।
چشمهها جاری ساختی تا قوم تو آب بنوشند و رود همیشه پر آب را خشک کردی تا از آن عبور کنند. | 15 |
तूने चश्मे और सैलाब जारी किए; तूने बड़े बड़े दरियाओं को ख़ुश्क कर डाला।
شب و روز را تو پدید آوردهای؛ خورشید و ماه را تو در آسمان قرار دادهای. | 16 |
दिन तेरा है, रात भी तेरी ही है; नूर और आफ़ताब को तू ही ने तैयार किया।
تمام نظم جهان از توست. تابستان و زمستان را تو بهوجود آوردهای. | 17 |
ज़मीन की तमाम हदें तू ही ने ठहराई हैं; गर्मी और सर्दी के मौसम तू ही ने बनाए।
ای خداوند، ببین چگونه دشمن به نام تو اهانت میکند. | 18 |
ऐ ख़ुदावन्द, इसे याद रख के दुश्मन ने ता'नाज़नी की है, और बेवकूफ़ क़ौम ने तेरे नाम की तक्फ़ीर की है।
قوم ستمدیدهٔ خود را برای همیشه ترک نکن؛ کبوتر ضعیف خود را به چنگ پرندهٔ شکاری مسپار! | 19 |
अपनी फ़ाख़्ता की जान की जंगली जानवर के हवाले न कर; अपने ग़रीबों की जान को हमेशा के लिए भूल न जा।
گوشههای تاریک سرزمین ما از ظلم پر شده است، عهدی را که با ما بستهای به یاد آر. | 20 |
अपने 'अहद का ख़याल फ़रमा, क्यूँकि ज़मीन के तारीक मक़ाम जु़ल्म के घरों से भरे हैं।
نگذار قوم مظلوم تو بیش از این رسوا شوند. ایشان را نجات ده تا تو را ستایش کنند. | 21 |
मज़लूम शर्मिन्दा होकर न लौटे; ग़रीब और मोहताज तेरे नाम की ता'रीफ़ करें।
ای خدا، برخیز و حق خود را از دشمن بگیر، زیرا این مردم نادان تمام روز به تو توهین میکنند. | 22 |
उठ ऐ ख़ुदा, आप ही अपनी वकालत कर; याद कर कि अहमक़ दिन भर तुझ पर कैसी ता'नाज़नी करता है।
فریاد اهانتآمیز آنها را که پیوسته بلند است، نشنیده مگیر. | 23 |
अपने दुश्मनों की आवाज़ को भूल न मुख़ालिफ़ों का हंगामा खड़ा होता रहता।