< مزامیر 39 >
برای رهبر سرایندگان، یِدوتون: مزمور داوود. به خود گفتم: «مواظب رفتارم خواهم بود و احتیاط خواهم کرد تا با زبان خود خطا نورزم. مادامی که آدم بدکار نزدیک من است سخن نخواهم گفت.» | 1 |
मैंने कहा “मैं अपनी राह की निगरानी करूँगा, ताकि मेरी ज़बान से ख़ता न हो; जब तक शरीर मेरे सामने है, मैं अपने मुँह को लगाम दिए रहूँगा।”
من گنگ و خاموش بودم، حتی از سخن گفتن دربارهٔ چیزهای خوب خودداری میکردم؛ ولی درد من باز هم شدیدتر شد. | 2 |
मैं गूंगा बनकर ख़ामोश रहा, और नेकी की तरफ़ से भी ख़ामोशी इख़्तियार की; और मेरा ग़म बढ़ गया।
هر چه بیشتر دربارهاش میاندیشیدم اضطرابم بیشتر میشد و آتش درونم شعلهورتر میگردید. سرانجام به سخن آمدم و گفتم: | 3 |
मेरा दिल अन्दर ही अन्दर जल रहा था। सोचते सोचते आग भड़क उठी, तब मैं अपनी ज़बान से कहने लगा,
«خداوندا، پایان عمرم را بر من معلوم ساز و اینکه ایام زندگانی من چقدر است تا بدانم که چقدر فانی هستم!» | 4 |
“ऐ ख़ुदावन्द! ऐसा कर कि मैं अपने अंजाम से वाकिफ़ हो जाऊँ, और इससे भी कि मेरी उम्र की मी'आद क्या है; मैं जान लूँ कि कैसा फ़ानी हूँ!
تو عمرم را به اندازهٔ یک وجب ساختهای و زندگانیم در نظر تو هیچ است. عمر انسان همچون نفسی است که برمیآید و نیست میگردد! | 5 |
देख, तूने मेरी उम्र बालिश्त भर की रख्खी है, और मेरी ज़िन्दगी तेरे सामने बे हक़ीक़त है। यक़ीनन हर इंसान बेहतरीन हालत में भी बिल्कुल बेसबात है (सिलाह)
عمر انسان مانند سایه زودگذر است و او بیهوده خود را مشوش میسازد. او مال و ثروت جمع میکند، بدون آنکه بداند چه کسی از آن استفاده خواهد کرد. | 6 |
दर हक़ीकत इंसान साये की तरह चलता फिरता है; यक़ीनन वह फ़जूल घबराते हैं; वह ज़ख़ीरा करता है और यह नहीं जानता के उसे कौन लेगा!
خداوندا، اکنون دیگر به چه امیدوار باشم؟ تنها امیدم تو هستی. | 7 |
“ऐ ख़ुदावन्द! अब मैं किस बात के लिए ठहरा हूँ? मेरी उम्मीद तुझ ही से है।
مرا از همهٔ گناهانم برهان و نگذار احمقان به من بخندند. | 8 |
मुझ को मेरी सब ख़ताओं से रिहाई दे। बेवक़ूफ़ों को मुझ पर अंगुली न उठाने दे।
من سکوت اختیار میکنم و زبان به شکایت نمیگشایم، زیرا این مصیبت را تو بر من عارض کردهای. | 9 |
मैं गूंगा बना, मैंने मुँह न खोला क्यूँकि तू ही ने यह किया है।
بلای خود را از من دور کن، زیرا از ضرب دست تو تلف میشوم. | 10 |
मुझ से अपनी बला दूर कर दे; मैं तो तेरे हाथ की मार से फ़ना हुआ जाता हूँ।
تو انسان را به سبب گناهانش توبیخ و تادیب میکنی؛ آنچه را که او به آن دل بسته است نابود میکنی، درست همانگونه که بید لباس را نابود میکند. آری، عمر انسان بادی بیش نیست. | 11 |
जब तू इंसान को बदी पर मलामत करके तम्बीह करता है; तो उसके हुस्न को पतंगे की तरह फ़ना कर देता है; यक़ीनन हर इंसान बेसबात है। (सिलाह)
خداوندا، دعای مرا بشنو و به فریادم برس؛ اشکهایم را نادیده نگیر. در این دنیا مسافری بیش نیستم؛ غریبم، غریب مانند اجداد خود؛ مرا نزد خود پناه بده. | 12 |
“ऐ ख़ुदावन्द! मेरी दुआ सुन और मेरी फ़रियाद पर कान लगा; मेरे आँसुओं को देखकर ख़ामोश न रह! क्यूँकि मैं तेरे सामने परदेसी और मुसाफ़िर हूँ, जैसे मेरे सब बाप — दादा थे।
غضب خود را از من برگردان؛ بگذار پیش از آنکه از این دنیا بروم و دیگر نباشم، بار دیگر روی شادی و نشاط را ببینم! | 13 |
आह! मुझ से नज़र हटा ले ताकि ताज़ा दम हो जाऊँ, इससे पहले के मर जाऊँ और हलाक हो जाऊँ।”