< ایوب 3 >
سرانجام ایوب لب به سخن گشود و روزی را که از مادر زاییده شده بود نفرین کرده، | 1 |
इसके बाद अय्यूब ने अपना मुँह खोल कर अपने पैदाइश के दिन पर ला'नत की।
«نابود باد روزی که به دنیا آمدم و شبی که در رحم مادرم قرار گرفتم! | 3 |
“मिट जाए वह दिन जिसमें मैं पैदा हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, 'कि देखो, बेटा हुआ।”
ای کاش آن روز در ظلمت فرو رود و حتی خدا آن را به یاد نیاورد و نوری بر آن نتابد. | 4 |
वह दिन अँधेरा हो जाए। ख़ुदा ऊपर से उसका लिहाज़ न करे, और न उस पर रोशनी पड़े।
ای کاش تاریکی و ظلمت مطلق آن را فرا گیرد و ابر تیره بر آن سایه افکند و تاریکی هولناک آن را در بر گیرد. | 5 |
अँधेरा और मौत का साया उस पर क़ाबिज़ हो। बदली उस पर छाई रहे और दिन को तारीक कर देनेवाली चीज़ें उसे दहशत ज़दा करें।
ای کاش آن شب از صفحهٔ روزگار محو گردد و دیگر هرگز در شمار روزهای سال و ماه قرار نگیرد. | 6 |
गहरी तारीकी उस रात को दबोच ले। वह साल के दिनों के बीच ख़ुशी न करने पाए, और न महीनों की ता'दाद में आए।
ای کاش شبی خاموش و عاری از شادی باشد. | 7 |
वह रात बाँझ हो जाए; उसमें ख़ुशी की कोई आवाज़ न आए।
بگذار نفرینکنندگانِ ماهر، نفرینش کنند، آنان که در برانگیزانیدنِ لِویاتان ماهرند. | 8 |
दिन पर ला'नत करने वाले उस पर ला'नत करें और वह भी जो अज़दह “को छेड़ने को तैयार हैं।
ای کاش آن شب ستارهای نداشته باشد و آرزوی روشنایی کند، ولی هرگز روشنایی نباشد و هیچگاه سپیدهٔ صبح را نبیند. | 9 |
उसकी शाम के तारे तारीक हो जाएँ, वह रोशनी की राह देखे, जबकि वह है नहीं, और न वह सुबह की पलकों को देखे।
آن شب را لعنت کنید، چون قادر به بستن رحم مادرم نشد و باعث شد من متولد شده، دچار این بلاها شوم. | 10 |
क्यूँकि उसने मेरी माँ के रहम के दरवाज़ों को बंद न किया और दुख को मेरी आँखों से छिपा न रख्खा।
«چرا مرده به دنیا نیامدم؟ چرا وقتی از رَحِمِ مادرم بیرون میآمدم، نمردم؟ | 11 |
मैं रहम ही में क्यूँ न मर गया? मैंने पेट से निकलते ही जान क्यूँ न दे दी?
چرا مادرم مرا روی زانوهایش گذاشت و مرا شیر داد؟ | 12 |
मुझे क़ुबूल करने को घुटने क्यूँ थे, और छातियाँ कि मैं उनसे पियूँ?
اگر هنگام تولد میمردم، اکنون آرام و آسوده در کنار پادشاهان، رهبران و بزرگان جهان که کاخهای قدیمی برای خود ساختند و قصرهای خود را با طلا و نقره پر کردند، خوابیده بودم. | 13 |
नहीं तो इस वक़्त मैं पड़ा होता, और बेख़बर रहता, मैं सो जाता। तब मुझे आराम मिलता।
ज़मीन के बादशाहों और सलाहकारों के साथ, जिन्होंने अपने लिए मक़बरे बनाए।
या उन शाहज़ादों के साथ होता, जिनके पास सोना था। जिन्होंने अपने घर चाँदी से भर लिए थे;
«چرا مرده به دنیا نیامدم تا مرا دفن کنند؟ مانند نوزادی که هرگز فرصت دیدن روشنایی را نیافته است؟ | 16 |
या पोशीदा गिरते हमल की तरह, मैं वजूद में न आता या उन बच्चों की तरह जिन्होंने रोशनी ही न देखी।
زیرا در عالم مرگ، شریران مزاحمتی به وجود نمیآورند و خستگان میآرامند. | 17 |
वहाँ शरीर फ़साद से बाज़ आते हैं, और थके मांदे राहत पाते हैं।
آنجا اسیران با هم در آسایشاند، و فریاد کارفرمایان را نمیشنوند. | 18 |
वहाँ क़ैदी मिलकर आराम करते हैं, और दरोग़ा की आवाज़ सुनने में नहीं आती।
در آنجا فقیر و غنی یکسانند و غلام از دست اربابش آزاد است. | 19 |
छोटे और बड़े दोनों वहीं हैं, और नौकर अपने मालिक से आज़ाद है।”
«چرا باید نور زندگی به کسانی که در بدبختی و تلخکامی به سر میبرند بتابد؟ | 20 |
“दुखियारे को रोशनी, और तल्ख़जान को ज़िन्दगी क्यूँ मिलती है?
و چرا کسانی که آرزوی مردن دارند و مرگشان فرا نمیرسد و مثل مردمی که در پی گنج هستند به دنبال مرگ میگردند، زنده بمانند؟ | 21 |
जो मौत की राह देखते हैं लेकिन वह आती नहीं, और छिपे ख़ज़ाने से ज़्यादा उसकी तलाश करते हैं।
چه سعادت بزرگی است وقتی که سرانجام مرگ را در آغوش میکشند! | 22 |
जो निहायत शादमान और ख़ुश होते हैं, जब क़ब्र को पा लेते हैं।
چرا زندگی به آنانی داده میشود که آیندهای ندارند و خدا زندگیشان را از مشکلات پر ساخته؟ | 23 |
ऐसे आदमी को रोशनी क्यूँ मिलती है, जिसकी राह छिपी है, और जिसे ख़ुदा ने हर तरफ़ से बंद कर दिया है?
خوراک من غصه است، و آه و ناله مانند آب از وجودم جاری است. | 24 |
क्यूँकि मेरे खाने की जगह मेरी आहें हैं, और मेरा कराहना पानी की तरह जारी है।
چیزی که همیشه از آن میترسیدم بر سرم آمده است. | 25 |
क्यूँकि जिस बात से मैं डरता हूँ, वही मुझ पर आती है, और जिस बात का मुझे ख़ौफ़ होता है, वही मुझ पर गुज़रती है।
آرامش و راحتی ندارم و رنجهای مرا پایانی نیست.» | 26 |
क्यूँकि मुझे न चैन है, न आराम है, न मुझे कल पड़ती है; बल्कि मुसीबत ही आती है।”