< Genesis 32 >

1 Iacob quoque abiit itinere quo coeperat fueruntque ei obviam angeli Dei
जब याकोब अपने देश की ओर निकले तब रास्ते में उनकी भेंट परमेश्वर के दूत से हुई.
2 quos cum vidisset ait castra Dei sunt haec et appellavit nomen loci illius Manaim id est Castra
उन्हें देखकर याकोब ने कहा, “यह परमेश्वर का शिविर है!” उन्होंने उस जगह को माहानाईम नाम दिया.
3 misit autem et nuntios ante se ad Esau fratrem suum in terram Seir regionis Edom
याकोब ने अपने भाई एसाव के पास एदोम के सेईर देश में दूत भेजे,
4 praecepitque eis dicens sic loquimini domino meo Esau haec dicit frater tuus Iacob apud Laban peregrinatus sum et fui usque in praesentem diem
और उनसे कहा कि मेरा स्वामी एसाव से यह कहना कि आपके सेवक याकोब कहता है, “मैं लाबान के यहां पराये होकर अब तक वहीं रहा.
5 habeo boves et asinos oves et servos atque ancillas mittoque nunc legationem ad dominum meum ut inveniam gratiam in conspectu tuo
अब मेरे पास बैल, गधे तथा स्त्री-पुरुष व दासियां हैं. मेरे अधिपति एसाव के पास दूत भेजने का कारण यह था कि आपकी कृपादृष्टि मुझ पर बनी रहे.”
6 reversi sunt nuntii ad Iacob dicentes venimus ad Esau fratrem tuum et ecce properat in occursum tibi cum quadringentis viris
जब वे दूत लौटकर याकोब के पास आए और उन्हें बताया, “हम आपके भाई से मिले. वे आपसे मिलने यहां आ रहे हैं और उनके साथ चार सौ व्यक्तियों का झुंड भी है.”
7 timuit Iacob valde et perterritus divisit populum qui secum erat greges quoque et oves et boves et camelos in duas turmas
यह सुन याकोब बहुत डर गये एवं व्याकुल हो गए. उन्होंने अपने साथ चल रहे लोगों को दो भागों में बांट दिया तथा भेड़-बकरियों, गाय-बैलों तथा ऊंटों के दो समूह बना दिए.
8 dicens si venerit Esau ad unam turmam et percusserit eam alia turma quae reliqua est salvabitur
यह सोचकर कि, अगर एसाव आकर एक झुंड पर आक्रमण करेगा, तो दूसरा झुंड बचकर भाग जायेगा.
9 dixitque Iacob Deus patris mei Abraham et Deus patris mei Isaac Domine qui dixisti mihi revertere in terram tuam et in locum nativitatis tuae et benefaciam tibi
याकोब ने कहा, “हे याहवेह, मेरे पिता अब्राहाम तथा यित्सहाक के परमेश्वर, आपने ही मुझे अपने देश जाने को कहा और कहा कि मैं तुम्हें आशीषित करूंगा.
10 minor sum cunctis miserationibus et veritate quam explesti servo tuo in baculo meo transivi Iordanem istum et nunc cum duabus turmis regredior
आपने मुझे जितना प्रेम किया, बढ़ाया और आशीषित किया, मैं उसके योग्य नहीं हूं, क्योंकि जाते समय मेरे पास एक छड़ी ही थी जिसको लेकर मैंने यरदन नदी पार की थी और
11 erue me de manu fratris mei de manu Esau quia valde eum timeo ne forte veniens percutiat matrem cum filiis
अब मैं इन दो समूहों के साथ लौट रहा हूं. प्रभु, मेरी बिनती है कि आप मुझे मेरे भाई एसाव से बचाएं. मुझे डर है कि वह आकर मुझ पर, व इन माताओं और बालकों पर आक्रमण करेगा.
12 tu locutus es quod bene mihi faceres et dilatares semen meum sicut harenam maris quae prae multitudine numerari non potest
आपने कहा था कि निश्चय मैं तुम्हें बढ़ाऊंगा तथा तुम्हारे वंश की संख्या सागर तट के बालू समान कर दूंगा.”
13 cumque dormisset ibi nocte illa separavit de his quae habebat munera Esau fratri suo
याकोब ने रात वहीं बिताई. और उन्होंने अपनी संपत्ति में से अपने भाई एसाव को उपहार देने के लिए अलग किया:
14 capras ducentas hircos viginti oves ducentas arietes viginti
दो सौ बकरियां तथा बीस बकरे, दो सौ भेड़ें तथा बीस मेढ़े,
15 camelos fetas cum pullis suis triginta vaccas quadraginta et tauros viginti asinas viginti et pullos earum decem
तीस दुधार ऊंटनियां तथा उनके शावक, चालीस गायें तथा दस सांड़, बीस गधियां तथा दस गधे.
16 et misit per manus servorum suorum singulos seorsum greges dixitque pueris suis antecedite me et sit spatium inter gregem et gregem
याकोब ने पशुओं के अलग-अलग झुंड बनाकर अपने सेवकों को सौंप दिए, और उन्होंने अपने सेवकों से कहा, “मेरे आगे-आगे चलते जाओ तथा हर एक झुंड के बीच थोड़ी जगह छोड़ना.”
17 et praecepit priori dicens si obvium habueris Esau fratrem meum et interrogaverit te cuius es et quo vadis et cuius sunt ista quae sequeris
जो सबसे आगे था उनसे कहा: “जब तुम मेरे भाई एसाव से मिलोगे और वह तुमसे पूछेगा, ‘कौन है तुम्हारा स्वामी और कहां जा रहे हो? और ये सब पशु, जो आगे जा रहे हैं, किसके हैं?’
18 respondebis servi tui Iacob munera misit domino meo Esau ipse quoque post nos venit
तब तुम उनसे कहना, ‘ये सभी आपके भाई याकोब के हैं, जो उपहार में उनके अधिपति एसाव को दिए जा रहे हैं. और याकोब हमारे पीछे आ रहे हैं.’”
19 similiter mandata dedit secundo ac tertio et cunctis qui sequebantur greges dicens hisdem verbis loquimini ad Esau cum inveneritis eum
याकोब ने यही बात दूसरे तथा तीसरे तथा उन सभी को कही, जो उनके पीछे-पीछे आ रहे थे.
20 et addetis ipse quoque servus tuus Iacob iter nostrum insequitur dixit enim placabo illum muneribus quae praecedunt et postea videbo forsitan propitiabitur mihi
“तुम यह कहना, ‘आपके सेवक याकोब पीछे आ रहे हैं.’” क्योंकि याकोब ने सोचा, “इतने उपहार देकर मैं एसाव को खुश कर दूंगा. इसके बाद मैं उनके साथ जाऊंगा. तब ज़रूर, वह मुझे स्वीकार कर लेंगे.”
21 praecesserunt itaque munera ante eum ipse vero mansit nocte illa in Castris
और इसी तरह सब उपहार आगे बढ़ते गये, और याकोब तंबू में रहे.
22 cumque mature surrexisset tulit duas uxores suas et totidem famulas cum undecim filiis et transivit vadum Iaboc
उस रात याकोब उठे और अपनी दोनों पत्नियों, दोनों दासियों एवं बालकों को लेकर यब्बोक के घाट के पार चले गए.
23 transductisque omnibus quae ad se pertinebant
याकोब ने सबको नदी की दूसरी तरफ भेज दिया.
24 remansit solus et ecce vir luctabatur cum eo usque mane
और याकोब वहीं रुक गये. एक व्यक्ति वहां आकर सुबह तक उनसे मल्ल-युद्ध करता रहा.
25 qui cum videret quod eum superare non posset tetigit nervum femoris eius et statim emarcuit
जब उस व्यक्ति ने यह देखा कि वह याकोब को हरा नहीं सका तब उसने याकोब की जांघ की नस को छुआ और मल्ल-युद्ध करते-करते ही उनकी नस चढ़ गई.
26 dixitque ad eum dimitte me iam enim ascendit aurora respondit non dimittam te nisi benedixeris mihi
यह होने पर उस व्यक्ति ने याकोब से कहा, “अब मुझे जाने दो.” किंतु याकोब ने उस व्यक्ति से कहा, “नहीं, मैं आपको तब तक जाने न दूंगा, जब तक आप मुझे आशीष न देंगे.”
27 ait ergo quod nomen est tibi respondit Iacob
तब उसने याकोब से पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?” उसने कहा, “याकोब.”
28 at ille nequaquam inquit Iacob appellabitur nomen tuum sed Israhel quoniam si contra Deum fortis fuisti quanto magis contra homines praevalebis
तब उस व्यक्ति ने उनसे कहा, “अब से तुम्हारा नाम याकोब नहीं बल्कि इस्राएल होगा, क्योंकि परमेश्वर से तथा मनुष्यों से संघर्ष करते हुए तुम जीत गए हो.”
29 interrogavit eum Iacob dic mihi quo appellaris nomine respondit cur quaeris nomen meum et benedixit ei in eodem loco
तब याकोब ने उस व्यक्ति से कहा, “कृपया आप मुझे अपना नाम बताइए.” उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, “क्या करोगे मेरा नाम जानकर?” और तब उस व्यक्ति ने वहीं याकोब को आशीष दी.
30 vocavitque Iacob nomen loci illius Phanuhel dicens vidi Deum facie ad faciem et salva facta est anima mea
जहां यह सब कुछ हुआ याकोब ने उस स्थान का नाम पनीएल रखा, यह कहकर कि “मैंने परमेश्वर को आमने-सामने देखा, फिर भी मेरा जीवन बच गया!”
31 ortusque est ei statim sol postquam transgressus est Phanuhel ipse vero claudicabat pede
जब याकोब पनीएल से निकले तब सूरज उसके ऊपर उग आया था. वह अपनी जांघ के कारण लंगड़ा रहे थे.
32 quam ob causam non comedunt filii Israhel nervum qui emarcuit in femore Iacob usque in praesentem diem eo quod tetigerit nervum femoris eius et obstipuerit
इस घटना का स्मरण करते हुए इस्राएल वंश आज तक जांघ की पुट्ठे की मांसपेशी को नहीं खाते क्योंकि उस व्यक्ति ने याकोब के जांघ की इसी मांसपेशी पर छुआ था.

< Genesis 32 >