< Isaiæ 57 >

1 Iustus perit, et non est qui recogitet in corde suo: et viri misericordiæ colliguntur, quia non est qui intelligat, a facie enim malitiæ collectus est iustus.
धर्मी व्यक्ति नाश होते हैं, और कोई इस बात की चिंता नहीं करता; भक्त उठा लिये जाते हैं, परंतु कोई नहीं सोचता. धर्मी जन आनेवाली परेशानी से बचने के लिये उठा लिये जाते हैं.
2 Veniat pax, requiescat in cubili suo qui ambulavit in directione sua.
वे शांति पहचानते हैं, वे अपने बिछौने पर आराम पाते हैं; जो सीधी चाल चलते हैं.
3 Vos autem accedite huc filii auguratricis: semen adulteri, et fornicariæ.
“परंतु हे जादूगरनी, व्यभिचारी और उसकी संतान यहां आओ!
4 Super quem lusistis? super quem dilatastis os, et eiecistis linguam? numquid non vos filii scelesti, semen mendax?
तुम किस पर हंसते हो? किसके लिए तुम्हारा मुंह ऐसा खुल रहा है किस पर जीभ निकालते हो? क्या तुम अत्याचार व झूठ की संतान नहीं हो?
5 qui consolamini in diis subter omne lignum frondosum, immolantes parvulos in torrentibus, subter eminentes petras?
सब हरे वृक्ष के नीचे कामातुर होते हो और नालों में तथा चट्टानों की गुफाओं में अपने बालकों का वध करते रहते हो.
6 In partibus torrentis pars tua, hæc est sors tua: et ipsis effudisti libamen, obtulisti sacrificium. numquid super his non indignabor?
तुम्हारा संबंध तो चट्टान के उन चिकने पत्थरों से है; वही तुम्हारा भाग और अंश है. तुम उन्हीं को अन्‍नबलि और पेय बलि चढ़ाते हो. क्या इन सबसे मेरा मन शांत हो जाएगा?
7 Super montem excelsum et sublimem posuisti cubile tuum, et illuc ascendisti ut immolares hostias.
ऊंचे पर्वत पर तुमने अपना बिछौना लगाया है; और तुमने वहीं जाकर बलि चढ़ाई है.
8 Et post ostium, et retro postem posuisti memoriale tuum: quia iuxta me discooperuisti, et suscepisti adulterum: dilatasti cubile tuum, et pepigisti cum eis fœdus: dilexisti stratum eorum manu aperta.
द्वार तथा द्वार के चौखट के पीछे तुमने अपने अन्य देवताओं का चिन्ह बनाया है, तुमने अपने आपको मुझसे दूर कर लिया है. तुमने वहां अपनी देह दिखाई, तब तुमने अपने बिछौने के स्थान को बढ़ा लिया; तुमने उनके साथ अपने लिए एक संबंध बना लिया, तुम्हारे लिए उनका बिछौना प्रिय हो गया, और उनकी नग्न शरीरों पर आसक्ति से नज़र डाली!
9 Et ornasti te regi unguento, et multiplicasti pigmenta tua. Misisti legatos tuos procul, et humiliata es usque ad inferos. (Sheol h7585)
राजा से मिलने के लिए तुमने यात्रा की तथा सुगंध द्रव्य से श्रृंगार कर उसे तेल भेंट किया. तुमने दूर देशों और अधोलोक में अपना दूत भेजा! (Sheol h7585)
10 In multitudine viæ tuæ laborasti: non dixisti: Quiescam: vitam manus tuæ invenisti, propterea non rogasti.
तुम तो लंबे मार्ग के कारण थक चुके थे, फिर भी तुमने यह न कहा कि, ‘व्यर्थ ही है यह.’ तुममें नए बल का संचार हुआ, तब तुम थके नहीं.
11 Pro quo solicita timuisti, quia mentita es, et mei non es recordata, neque cogitasti in corde tuo? quia ego tacens, et quasi non videns, et mei oblita es.
“कौन था वह जिससे तुम डरती थी जब तुमने मुझसे झूठ कहा, तथा मुझे भूल गई, तुमने तो मेरे बारे में सोचना ही छोड़ दिया था? क्या मैं बहुत समय तक चुप न रहा तुम इस कारण मेरा भय नहीं मानती?
12 Ego annunciabo iustitiam tuam, et opera tua non proderunt tibi.
मैं तुम्हारे धर्म एवं कामों को बता दूंगा, लेकिन यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा.
13 Cum clamaveris, liberent te congregati tui, et omnes eos auferet ventus, tollet aura: Qui autem fiduciam habet mei, hereditabit terram, et possidebit montem sanctum meum.
बुलाने पर, तुम्हारी मूर्तियां ही तुम्हारी रक्षा करें! किंतु होगा यह कि हवा उन्हें उड़ा ले जाएगी, केवल श्वास उन्हें दूर कर देगी. परंतु वे जो मुझ पर भरोसा रखते हैं, वह देश के अधिकारी होंगे, तथा वह मेरे पवित्र पर्वत का स्वामी हो जाएगा.”
14 Et dicam: Viam facite, præbete iter, declinate de semita, auferte offendicula de via populi mei.
तब यह कहा जाएगा: “निर्माण करो, निर्माण करो, पांति बांधकर राजमार्ग बनाओ! हर एक रुकावट मेरी प्रजा के मार्ग से हटाई जाए.”
15 Quia hæc dicit Excelsus, et sublimis habitans æternitatem: et sanctum nomen eius in excelso et in sancto habitans, et cum contrito et humili spiritu: ut vivificet spiritum humilium, et vivificet cor contritorum.
क्योंकि जो महान, उत्तम और सदा-सर्वदा जीवित रहते हैं— जिनका नाम ही पवित्र है, वे यों कहते हैं: “मैं ऊंचे एवं पवित्र स्थान में निवास करता हूं, और दुःखी तथा नम्र लोगों के साथ भी रहता हूं, ताकि मैं नम्र और दुःखी लोगों के मन को खुशी दूं.
16 Non enim in sempiternum litigabo, neque usque ad finem irascar: quia spiritus a facie mea egredietur, et flatus ego faciam.
क्योंकि मैं सदा-सर्वदा वाद-विवाद करता न रहूंगा, न ही मैं सर्वदा रुठा रहूंगा, क्योंकि वे आत्माएं मेरी बनायी हुई हैं— और जीव मेरे सामने मूर्छित हो जाते हैं.
17 Propter iniquitatem avaritiæ eius iratus sum, et percussi eum: abscondi a te faciem meam, et indignatus sum: et abiit vagus in via cordis sui.
उसके लालच के कारण मैं उससे क्रोधित होकर; उसको दुःख दिया और मुंह छिपाया था, पर वह अपनी इच्छा से दूर चला गया था.
18 Vias eius vidi, et sanavi eum, et reduxi eum, et reddidi consolationes ipsi, et lugentibus eius.
मैंने उसका चालचलन देखा है, फिर भी अब उसको चंगा करूंगा; मैं उसे ले चलूंगा तथा उसके शोक करनेवालों को शांति दूंगा,
19 Creavi fructum labiorum pacem, pacem ei, qui longe est, et qui prope, dixit Dominus, et sanavi eum.
मैं उनके होंठों के फल का रचनेवाला हूं. जो दूर हैं उन्हें शांति, और पास हैं उन्हें भी मैं शांति दूंगा,” यह याहवेह का वचन है, “मैं उसे चंगा करूंगा.”
20 Impii autem quasi mare fervens, quod quiescere non potest, et redundant fluctus eius in conculcationem et lutum.
परंतु दुष्ट लहराते हुए सागर समान है, जो स्थिर रह ही नहीं सकता, उसकी तरंगें कचरे और कीचड़ को उछालती रहती हैं.
21 Non est pax impiis, dicit Dominus Deus.
मेरे परमेश्वर का वचन है, “दुष्टों के लिए शांति नहीं.”

< Isaiæ 57 >