< תְהִלִּים 104 >
בָּרֲכִ֥י נַפְשִׁ֗י אֶת־יְה֫וָ֥ה יְהוָ֣ה אֱ֭לֹהַי גָּדַ֣לְתָּ מְּאֹ֑ד ה֭וֹד וְהָדָ֣ר לָבָֽשְׁתָּ׃ | 1 |
मेरे प्राण, याहवेह का स्तवन करो. याहवेह, मेरे परमेश्वर, अत्यंत महान हैं आप; वैभव और तेज से विभूषित हैं आप.
עֹֽטֶה־א֭וֹר כַּשַּׂלְמָ֑ה נוֹטֶ֥ה שָׁ֝מַ֗יִם כַּיְרִיעָֽה׃ | 2 |
आपने ज्योति को वस्त्र समान धारण किया हुआ है; आपने वस्त्र समान आकाश को विस्तीर्ण किया है.
הַ֥מְקָרֶֽה בַמַּ֗יִם עֲֽלִיּ֫וֹתָ֥יו הַשָּׂם־עָבִ֥ים רְכוּב֑וֹ הַֽ֝מְהַלֵּ֗ךְ עַל־כַּנְפֵי־רֽוּחַ׃ | 3 |
आपने आकाश के जल के ऊपर ऊपरी कक्ष की धरनें स्थापित की हैं, मेघ आपके रथ हैं तथा आप पवन के पंखों पर यात्रा करते हैं.
עֹשֶׂ֣ה מַלְאָכָ֣יו רוּח֑וֹת מְ֝שָׁרְתָ֗יו אֵ֣שׁ לֹהֵֽט׃ | 4 |
हवा को आपने अपना संदेशवाहक बनाया है, अग्निशिखाएं आपकी परिचारिकाएं हैं.
יָֽסַד־אֶ֭רֶץ עַל־מְכוֹנֶ֑יהָ בַּל־תִּ֝מּ֗וֹט עוֹלָ֥ם וָעֶֽד׃ | 5 |
आपने ही पृथ्वी को इसकी नींव पर स्थापित किया है; इसे कभी भी सरकाया नहीं जा सकता.
תְּ֭הוֹם כַּלְּב֣וּשׁ כִּסִּית֑וֹ עַל־הָ֝רִ֗ים יַֽעַמְדוּ־מָֽיִם׃ | 6 |
आपने गहन जल के आवरण से इसे परिधान समान सुशोभित किया; जल स्तर पर्वतों से ऊंचा उठ गया था.
מִן־גַּעֲרָ֣תְךָ֣ יְנוּס֑וּן מִן־ק֥וֹל רַֽ֝עַמְךָ֗ יֵחָפֵזֽוּן׃ | 7 |
किंतु जब आपने फटकार लगाई, तब जल हट गया, आपके गर्जन समान आदेश से जल-राशियां भाग खड़ी हुई;
יַעֲל֣וּ הָ֭רִים יֵרְד֣וּ בְקָע֑וֹת אֶל־מְ֝ק֗וֹם זֶ֤ה ׀ יָסַ֬דְתָּ לָהֶֽם׃ | 8 |
जब पर्वतों की ऊंचाई बढ़ी, तो घाटियां गहरी होती गईं, ठीक आपके नियोजन के अनुरूप निर्धारित स्थान पर.
גְּֽבוּל־שַׂ֭מְתָּ בַּל־יַֽעֲבֹר֑וּן בַּל־יְ֝שׁוּב֗וּן לְכַסּ֥וֹת הָאָֽרֶץ׃ | 9 |
आपके द्वारा उनके लिए निर्धारित सीमा ऐसी थी; जिसका अतिक्रमण उनके लिए संभव न था; और वे पृथ्वी को पुनः जलमग्न न कर सकें.
הַֽמְשַׁלֵּ֣חַ מַ֭עְיָנִים בַּנְּחָלִ֑ים בֵּ֥ין הָ֝רִ֗ים יְהַלֵּכֽוּן׃ | 10 |
आप ही के सामर्थ्य से घाटियों में झरने फूट पड़ते हैं; और पर्वतों के मध्य से जलधाराएं बहने लगती हैं.
יַ֭שְׁקוּ כָּל־חַיְת֣וֹ שָׂדָ֑י יִשְׁבְּר֖וּ פְרָאִ֣ים צְמָאָֽם׃ | 11 |
इन्हीं से मैदान के हर एक पशु को पेय जल प्राप्त होता है; तथा वन्य गधे भी प्यास बुझा लेते हैं.
עֲ֭לֵיהֶם עוֹף־הַשָּׁמַ֣יִם יִשְׁכּ֑וֹן מִבֵּ֥ין עֳ֝פָאיִ֗ם יִתְּנוּ־קֽוֹל׃ | 12 |
इनके तट पर आकाश के पक्षियों का बसेरा होता है; शाखाओं के मध्य से उनकी आवाज निकलती है.
מַשְׁקֶ֣ה הָ֭רִים מֵעֲלִיּוֹתָ֑יו מִפְּרִ֥י מַ֝עֲשֶׂ֗יךָ תִּשְׂבַּ֥ע הָאָֽרֶץ׃ | 13 |
वही अपने आवास के ऊपरी कक्ष से पर्वतों की सिंचाई करते हैं; आप ही के द्वारा उपजाए फलों से पृथ्वी तृप्त है.
מַצְמִ֤יחַ חָצִ֨יר ׀ לַבְּהֵמָ֗ה וְ֭עֵשֶׂב לַעֲבֹדַ֣ת הָאָדָ֑ם לְה֥וֹצִיא לֶ֝֗חֶם מִן־הָאָֽרֶץ׃ | 14 |
वह पशुओं के लिए घास उत्पन्न करते हैं, तथा मनुष्य के श्रम के लिए वनस्पति, कि वह पृथ्वी से आहार प्राप्त कर सके:
וְיַ֤יִן ׀ יְשַׂמַּ֬ח לְֽבַב־אֱנ֗וֹשׁ לְהַצְהִ֣יל פָּנִ֣ים מִשָּׁ֑מֶן וְ֝לֶ֗חֶם לְֽבַב־אֱנ֥וֹשׁ יִסְעָֽד׃ | 15 |
मनुष्य के हृदय मगन करने के निमित्त द्राक्षारस, मुखमंडल को चमकीला करने के निमित्त तेल, तथा मनुष्य के जीवन को संभालने के निमित्त आहार उत्पन्न होता है.
יִ֭שְׂבְּעוּ עֲצֵ֣י יְהוָ֑ה אַֽרְזֵ֥י לְ֝בָנ֗וֹן אֲשֶׁ֣ר נָטָֽע׃ | 16 |
याहवेह द्वारा लगाए वृक्षों के लिए अर्थात् लबानोन में लगाए देवदार के वृक्षों के लिए जल बड़ी मात्रा में होता है.
אֲשֶׁר־שָׁ֭ם צִפֳּרִ֣ים יְקַנֵּ֑נוּ חֲ֝סִידָ֗ה בְּרוֹשִׁ֥ים בֵּיתָֽהּ׃ | 17 |
पक्षियों ने इन वृक्षों में अपने घोंसले बनाए हैं; सारस ने अपना घोंसला चीड़ के वृक्ष में बनाया है.
הָרִ֣ים הַ֭גְּבֹהִים לַיְּעֵלִ֑ים סְ֝לָעִ֗ים מַחְסֶ֥ה לַֽשְׁפַנִּֽים׃ | 18 |
ऊंचे पर्वतों में वन्य बकरियों का निवास है; चट्टानों में चट्टानी बिज्जुओं ने आश्रय लिया है.
עָשָׂ֣ה יָ֭רֵחַ לְמוֹעֲדִ֑ים שֶׁ֝֗מֶשׁ יָדַ֥ע מְבוֹאֽוֹ׃ | 19 |
आपने नियत समय के लिए चंद्रमा बनाया है, सूर्य को अपने अस्त होने का स्थान ज्ञात है.
תָּֽשֶׁת־חֹ֭שֶׁךְ וִ֣יהִי לָ֑יְלָה בּֽוֹ־תִ֝רְמֹ֗שׂ כָּל־חַיְתוֹ ־יָֽעַר׃ | 20 |
आपने अंधकार का प्रबंध किया, कि रात्रि हो, जिस समय वन्य पशु चलने फिरने को निकल पड़ते हैं.
הַ֭כְּפִירִים שֹׁאֲגִ֣ים לַטָּ֑רֶף וּלְבַקֵּ֖שׁ מֵאֵ֣ל אָכְלָֽם׃ | 21 |
अपने शिकार के लिए पुष्ट सिंह गरजनेवाले हैं, वे परमेश्वर से अपने भोजन खोजते हैं.
תִּזְרַ֣ח הַ֭שֶּׁמֶשׁ יֵאָסֵפ֑וּן וְאֶל־מְ֝עוֹנֹתָ֗ם יִרְבָּצֽוּן׃ | 22 |
सूर्योदय के साथ ही वे चुपचाप छिप जाते हैं; और अपनी-अपनी मांदों में जाकर सो जाते हैं.
יֵצֵ֣א אָדָ֣ם לְפָעֳל֑וֹ וְֽלַעֲבֹ֖דָת֣וֹ עֲדֵי־עָֽרֶב׃ | 23 |
इस समय मनुष्य अपने-अपने कार्यों के लिए निकल पड़ते हैं, वे संध्या तक अपने कार्यों में परिश्रम करते रहते हैं.
מָֽה־רַבּ֬וּ מַעֲשֶׂ֨יךָ ׀ יְֽהוָ֗ה כֻּ֭לָּם בְּחָכְמָ֣ה עָשִׂ֑יתָ מָלְאָ֥ה הָ֝אָ֗רֶץ קִנְיָנֶֽךָ׃ | 24 |
याहवेह! असंख्य हैं आपके द्वारा निष्पन्न कार्य, आपने अपने अद्भुत ज्ञान में इन सब की रचना की है; समस्त पृथ्वी आपके द्वारा रचे प्राणियों से परिपूर्ण हो गई है.
זֶ֤ה ׀ הַיָּ֥ם גָּדוֹל֮ וּרְחַ֪ב יָ֫דָ֥יִם שָֽׁם־רֶ֭מֶשׂ וְאֵ֣ין מִסְפָּ֑ר חַיּ֥וֹת קְ֝טַנּ֗וֹת עִם־גְּדֹלֽוֹת׃ | 25 |
एक ओर समुद्र है, विस्तृत और गहरा, उसमें भी असंख्य प्राणी चलते फिरते हैं— समस्त जीवित प्राणी हैं, सूक्ष्म भी और विशालकाय भी.
שָׁ֭ם אֳנִיּ֣וֹת יְהַלֵּכ֑וּן לִ֝וְיָתָ֗ן זֶֽה־יָצַ֥רְתָּ לְשַֽׂחֶק־בּֽוֹ׃ | 26 |
इसमें जलयानों का आगमन होता रहता है, साथ ही इसमें विशालकाय जंतु हैं, लिवयाथान, जिसे आपने समुद्र में खेलने के लिए बनाया है.
כֻּ֭לָּם אֵלֶ֣יךָ יְשַׂבֵּר֑וּן לָתֵ֖ת אָכְלָ֣ם בְּעִתּֽוֹ׃ | 27 |
इन सभी की दृष्टि आपकी ओर इसी आशा में लगी रहती है, कि इन्हें आपकी ओर से उपयुक्त अवसर पर आहार प्राप्त होगा.
תִּתֵּ֣ן לָ֭הֶם יִלְקֹט֑וּן תִּפְתַּ֥ח יָֽ֝דְךָ֗ יִשְׂבְּע֥וּן טֽוֹב׃ | 28 |
जब आप उन्हें आहार प्रदान करते हैं, वे इसे एकत्र करते हैं; जब आप अपनी मुट्ठी खोलते हैं, उन्हें उत्तम वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं.
תַּסְתִּ֥יר פָּנֶיךָ֮ יִֽבָּהֵ֫ל֥וּן תֹּסֵ֣ף ר֭וּחָם יִגְוָע֑וּן וְֽאֶל־עֲפָרָ֥ם יְשׁוּבֽוּן׃ | 29 |
जब आप उनसे अपना मुख छिपा लेते हैं, वे घबरा जाते हैं; जब आप उनकी श्वास छीन लेते हैं, उनके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं और वे उसी धूलि में लौट जाते हैं.
תְּשַׁלַּ֣ח ר֭וּחֲךָ יִבָּרֵא֑וּן וּ֝תְחַדֵּ֗שׁ פְּנֵ֣י אֲדָמָֽה׃ | 30 |
जब आप अपना पवित्रात्मा प्रेषित करते हैं, उनका उद्भव होता है, उस समय आप पृथ्वी के स्वरूप को नया बना देते हैं.
יְהִ֤י כְב֣וֹד יְהוָ֣ה לְעוֹלָ֑ם יִשְׂמַ֖ח יְהוָ֣ה בְּמַעֲשָֽׂיו׃ | 31 |
याहवेह का तेज सदा-सर्वदा स्थिर रहे; याहवेह की कृतियां उन्हें प्रफुल्लित करती रहें.
הַמַּבִּ֣יט לָ֭אָרֶץ וַתִּרְעָ֑ד יִגַּ֖ע בֶּהָרִ֣ים וְֽיֶעֱשָֽׁנוּ׃ | 32 |
जब वह पृथ्वी की ओर दृष्टिपात करते हैं, वह थरथरा उठती है, वह पर्वतों का स्पर्श मात्र करते हैं और उनसे धुआं उठने लगता है.
אָשִׁ֣ירָה לַיהוָ֣ה בְּחַיָּ֑י אֲזַמְּרָ֖ה לֵאלֹהַ֣י בְּעוֹדִֽי׃ | 33 |
मैं आजीवन याहवेह का गुणगान करता रहूंगा; जब तक मेरा अस्तित्व है, मैं अपने परमेश्वर का स्तवन गान करूंगा.
יֶעֱרַ֣ב עָלָ֣יו שִׂיחִ֑י אָ֝נֹכִ֗י אֶשְׂמַ֥ח בַּיהוָֽה׃ | 34 |
मेरा मनन-चिन्तन उनको प्रसन्न करनेवाला हो, क्योंकि याहवेह मेरे परम आनंद का उगम हैं.
יִתַּ֤מּוּ חַטָּאִ֨ים ׀ מִן־הָאָ֡רֶץ וּרְשָׁעִ֤ים ׀ ע֤וֹד אֵינָ֗ם בָּרֲכִ֣י נַ֭פְשִׁי אֶת־יְהוָ֗ה הַֽלְלוּ־יָֽהּ׃ | 35 |
पृथ्वी से पापी समाप्त हो जाएं, दुष्ट फिर देखे न जाएं. मेरे प्राण, याहवेह का स्तवन करो. याहवेह का स्तवन हो.