< מִשְׁלֵי 24 >

אַל־תְּ֭קַנֵּא בְּאַנְשֵׁ֣י רָעָ֑ה וְאַל־תִּתְאָו (תִּ֝תְאָ֗יו) לִהְיֹ֥ות אִתָּֽם׃ 1
बुरे लोगों के विषय में डाह न करना, और न उसकी संगति की चाह रखना;
כִּי־שֹׁ֖ד יֶהְגֶּ֣ה לִבָּ֑ם וְ֝עָמָ֗ל שִׂפְתֵיהֶ֥ם תְּדַבֵּֽרְנָה׃ 2
क्योंकि वे उपद्रव सोचते रहते हैं, और उनके मुँह से दुष्टता की बात निकलती है।
בְּ֭חָכְמָה יִבָּ֣נֶה בָּ֑יִת וּ֝בִתְבוּנָ֗ה יִתְכֹּונָֽן׃ 3
घर बुद्धि से बनता है, और समझ के द्वारा स्थिर होता है।
וּ֭בְדַעַת חֲדָרִ֣ים יִמָּלְא֑וּ כָּל־הֹ֖ון יָקָ֣ר וְנָעִֽים׃ 4
ज्ञान के द्वारा कोठरियाँ सब प्रकार की बहुमूल्य और मनोहर वस्तुओं से भर जाती हैं।
גֶּֽבֶר־חָכָ֥ם בַּעֹ֑וז וְאִֽישׁ־דַּ֝֗עַת מְאַמֶּץ־כֹּֽחַ׃ 5
वीर पुरुष बलवान होता है, परन्तु ज्ञानी व्यक्ति बलवान पुरुष से बेहतर है।
כִּ֣י בְ֭תַחְבֻּלֹות תַּעֲשֶׂה־לְּךָ֣ מִלְחָמָ֑ה וּ֝תְשׁוּעָ֗ה בְּרֹ֣ב יֹועֵֽץ׃ 6
इसलिए जब तू युद्ध करे, तब युक्ति के साथ करना, विजय बहुत से मंत्रियों के द्वारा प्राप्त होती है।
רָאמֹ֣ות לֶֽאֱוִ֣יל חָכְמֹ֑ות בַּ֝שַּׁ֗עַר לֹ֣א יִפְתַּח־פִּֽיהוּ׃ 7
बुद्धि इतने ऊँचे पर है कि मूर्ख उसे पा नहीं सकता; वह सभा में अपना मुँह खोल नहीं सकता।
מְחַשֵּׁ֥ב לְהָרֵ֑עַ לֹ֝֗ו בַּֽעַל־מְזִמֹּ֥ות יִקְרָֽאוּ׃ 8
जो सोच विचार के बुराई करता है, उसको लोग दुष्ट कहते हैं।
זִמַּ֣ת אִוֶּ֣לֶת חַטָּ֑את וְתֹועֲבַ֖ת לְאָדָ֣ם לֵֽץ׃ 9
मूर्खता का विचार भी पाप है, और ठट्ठा करनेवाले से मनुष्य घृणा करते हैं।
הִ֭תְרַפִּיתָ בְּיֹ֥ום צָרָ֗ה צַ֣ר כֹּחֶֽכָה׃ 10
१०यदि तू विपत्ति के समय साहस छोड़ दे, तो तेरी शक्ति बहुत कम है।
הַ֭צֵּל לְקֻחִ֣ים לַמָּ֑וֶת וּמָטִ֥ים לַ֝הֶ֗רֶג אִם־תַּחְשֹֽׂוךְ׃ 11
११जो मार डाले जाने के लिये घसीटे जाते हैं उनको छुड़ा; और जो घात किए जाने को हैं उन्हें रोक।
כִּֽי־תֹאמַ֗ר הֵן֮ לֹא־יָדַ֪עְנ֫וּ זֶ֥ה הֲ‍ֽלֹא־תֹ֘כֵ֤ן לִבֹּ֨ות ׀ הֽוּא־יָבִ֗ין וְנֹצֵ֣ר נַ֭פְשְׁךָ ה֣וּא יֵדָ֑ע וְהֵשִׁ֖יב לְאָדָ֣ם כְּפָעֳלֹֽו׃ 12
१२यदि तू कहे, कि देख मैं इसको जानता न था, तो क्या मन का जाँचनेवाला इसे नहीं समझता? और क्या तेरे प्राणों का रक्षक इसे नहीं जानता? और क्या वह हर एक मनुष्य के काम का फल उसे न देगा?
אֱכָל־בְּנִ֣י דְבַ֣שׁ כִּי־טֹ֑וב וְנֹ֥פֶת מָ֝תֹ֗וק עַל־חִכֶּֽךָ׃ 13
१३हे मेरे पुत्र तू मधु खा, क्योंकि वह अच्छा है, और मधु का छत्ता भी, क्योंकि वह तेरे मुँह में मीठा लगेगा।
כֵּ֤ן ׀ דְּעֶ֥ה חָכְמָ֗ה לְנַ֫פְשֶׁ֥ךָ אִם־מָ֭צָאתָ וְיֵ֣שׁ אַחֲרִ֑ית וְ֝תִקְוָתְךָ֗ לֹ֣א תִכָּרֵֽת׃ פ 14
१४इसी रीति बुद्धि भी तुझे वैसी ही मीठी लगेगी; यदि तू उसे पा जाए तो अन्त में उसका फल भी मिलेगा, और तेरी आशा न टूटेगी।
אַל־תֶּאֱרֹ֣ב רָ֭שָׁע לִנְוֵ֣ה צַדִּ֑יק אַֽל־תְּשַׁדֵּ֥ד רִבְצֹֽו׃ 15
१५तू दुष्ट के समान धर्मी के निवास को नष्ट करने के लिये घात में न बैठ; और उसके विश्रामस्थान को मत उजाड़;
כִּ֤י שֶׁ֨בַע ׀ יִפֹּ֣ול צַדִּ֣יק וָקָ֑ם וּ֝רְשָׁעִ֗ים יִכָּשְׁל֥וּ בְרָעָֽה׃ 16
१६क्योंकि धर्मी चाहे सात बार गिरे तो भी उठ खड़ा होता है; परन्तु दुष्ट लोग विपत्ति में गिरकर पड़े ही रहते हैं।
בִּנְפֹ֣ל אֹויְבֶיךָ (אֹֽ֭ויִבְךָ) אַל־תִּשְׂמָ֑ח וּ֝בִכָּשְׁלֹ֗ו אַל־יָגֵ֥ל לִבֶּֽךָ׃ 17
१७जब तेरा शत्रु गिर जाए तब तू आनन्दित न हो, और जब वह ठोकर खाए, तब तेरा मन मगन न हो।
פֶּן־יִרְאֶ֣ה יְ֭הוָה וְרַ֣ע בְּעֵינָ֑יו וְהֵשִׁ֖יב מֵעָלָ֣יו אַפֹּֽו׃ 18
१८कहीं ऐसा न हो कि यहोवा यह देखकर अप्रसन्न हो और अपना क्रोध उस पर से हटा ले।
אַל־תִּתְחַ֥ר בַּמְּרֵעִ֑ים אַל־תְּ֝קַנֵּ֗א בָּרְשָׁעִֽים׃ 19
१९कुकर्मियों के कारण मत कुढ़, दुष्ट लोगों के कारण डाह न कर;
כִּ֤י ׀ לֹֽא־תִהְיֶ֣ה אַחֲרִ֣ית לָרָ֑ע נֵ֖ר רְשָׁעִ֣ים יִדְעָֽךְ׃ 20
२०क्योंकि बुरे मनुष्य को अन्त में कुछ फल न मिलेगा, दुष्टों का दीपक बुझा दिया जाएगा।
יְרָֽא־אֶת־יְהוָ֣ה בְּנִ֣י וָמֶ֑לֶךְ עִם־שֹׁ֝ונִ֗ים אַל־תִּתְעָרָֽב׃ 21
२१हे मेरे पुत्र, यहोवा और राजा दोनों का भय मानना; और उनके विरुद्ध बलवा करनेवालों के साथ न मिलना;
כִּֽי־פִ֭תְאֹם יָק֣וּם אֵידָ֑ם וּפִ֥יד שְׁ֝נֵיהֶ֗ם מִ֣י יֹודֵֽעַ׃ ס 22
२२क्योंकि उन पर विपत्ति अचानक आ पड़ेगी, और दोनों की ओर से आनेवाली विपत्ति को कौन जानता है?
גַּם־אֵ֥לֶּה לַֽחֲכָמִ֑ים הַֽכֵּר־פָּנִ֖ים בְּמִשְׁפָּ֣ט בַּל־טֹֽוב׃ 23
२३बुद्धिमानों के वचन यह भी हैं। न्याय में पक्षपात करना, किसी भी रीति से अच्छा नहीं।
אֹ֤מֵ֨ר ׀ לְרָשָׁע֮ צַדִּ֪יק אָ֥תָּה יִקְּבֻ֥הוּ עַמִּ֑ים יִזְעָמ֥וּהוּ לְאֻמִּֽים׃ 24
२४जो दुष्ट से कहता है कि तू निर्दोष है, उसको तो हर समाज के लोग श्राप देते और जाति-जाति के लोग धमकी देते हैं;
וְלַמֹּוכִיחִ֥ים יִנְעָ֑ם וַֽ֝עֲלֵיהֶ֗ם תָּבֹ֥וא בִרְכַּת־טֹֽוב׃ 25
२५परन्तु जो लोग दुष्ट को डाँटते हैं उनका भला होता है, और उत्तम से उत्तम आशीर्वाद उन पर आता है।
שְׂפָתַ֥יִם יִשָּׁ֑ק מֵ֝שִׁ֗יב דְּבָרִ֥ים נְכֹחִֽים׃ 26
२६जो सीधा उत्तर देता है, वह होठों को चूमता है।
הָ֘כֵ֤ן בַּח֨וּץ ׀ מְלַאכְתֶּ֗ךָ וְעַתְּדָ֣הּ בַּשָּׂדֶ֣ה לָ֑ךְ אַ֝חַ֗ר וּבָנִ֥יתָ בֵיתֶֽךָ׃ פ 27
२७अपना बाहर का काम-काज ठीक करना, और अपने लिए खेत को भी तैयार कर लेना; उसके बाद अपना घर बनाना।
אַל־תְּהִ֣י עֵד־חִנָּ֣ם בְּרֵעֶ֑ךָ וַ֝הֲפִתִּ֗יתָ בִּשְׂפָתֶֽיךָ׃ 28
२८व्यर्थ अपने पड़ोसी के विरुद्ध साक्षी न देना, और न उसको फुसलाना।
אַל־תֹּאמַ֗ר כַּאֲשֶׁ֣ר עָֽשָׂה־לִ֭י כֵּ֤ן אֶֽעֱשֶׂה־לֹּ֑ו אָשִׁ֖יב לָאִ֣ישׁ כְּפָעֳלֹֽו׃ 29
२९मत कह, “जैसा उसने मेरे साथ किया वैसा ही मैं भी उसके साथ करूँगा; और उसको उसके काम के अनुसार पलटा दूँगा।”
עַל־שְׂדֵ֣ה אִישׁ־עָצֵ֣ל עָבַ֑רְתִּי וְעַל־כֶּ֝֗רֶם אָדָ֥ם חֲסַר־לֵֽב׃ 30
३०मैं आलसी के खेत के पास से और निर्बुद्धि मनुष्य की दाख की बारी के पास होकर जाता था,
וְהִנֵּ֨ה עָ֘לָ֤ה כֻלֹּ֨ו ׀ קִמְּשֹׂנִ֗ים כָּסּ֣וּ פָנָ֣יו חֲרֻלִּ֑ים וְגֶ֖דֶר אֲבָנָ֣יו נֶהֱרָֽסָה׃ 31
३१तो क्या देखा, कि वहाँ सब कहीं कटीले पेड़ भर गए हैं; और वह बिच्छू पौधों से ढँक गई है, और उसके पत्थर का बाड़ा गिर गया है।
וָֽאֶחֱזֶ֣ה אָ֭נֹכִֽי אָשִׁ֣ית לִבִּ֑י רָ֝אִ֗יתִי לָקַ֥חְתִּי מוּסָֽר׃ 32
३२तब मैंने देखा और उस पर ध्यानपूर्वक विचार किया; हाँ मैंने देखकर शिक्षा प्राप्त की।
מְעַ֣ט שֵׁ֭נֹות מְעַ֣ט תְּנוּמֹ֑ות מְעַ֓ט ׀ חִבֻּ֖ק יָדַ֣יִם לִשְׁכָּֽב׃ 33
३३छोटी सी नींद, एक और झपकी, थोड़ी देर हाथ पर हाथ रख के लेटे रहना,
וּבָֽא־מִתְהַלֵּ֥ךְ רֵישֶׁ֑ךָ וּ֝מַחְסֹרֶ֗יךָ כְּאִ֣ישׁ מָגֵֽן׃ פ 34
३४तब तेरा कंगालपन डाकू के समान, और तेरी घटी हथियार-बन्द के समान आ पड़ेगी।

< מִשְׁלֵי 24 >