< אִיּוֹב 14 >

אָ֭דָם יְל֣וּד אִשָּׁ֑ה קְצַ֥ר יָ֝מִ֗ים וּֽשְׂבַֽע־רֹֽגֶז׃ 1
“स्त्री से जन्मे मनुष्य का जीवन, अल्पकालिक एवं दुःख भरा होता है.
כְּצִ֣יץ יָ֭צָא וַיִּמָּ֑ל וַיִּבְרַ֥ח כַּ֝צֵּ֗ל וְלֹ֣א יַעֲמֹֽוד׃ 2
उस पुष्प समान, जो खिलता है तथा मुरझा जाता है; वह तो छाया-समान द्रुत गति से विलीन हो जाता तथा अस्तित्वहीन रह जाता है.
אַף־עַל־זֶ֭ה פָּקַ֣חְתָּ עֵינֶ֑ךָ וְאֹ֘תִ֤י תָבִ֖יא בְמִשְׁפָּ֣ט עִמָּֽךְ׃ 3
क्या इस प्रकार का प्राणी इस योग्य है कि आप उस पर दृष्टि बनाए रखें तथा उसका न्याय करने के लिए उसे अपनी उपस्थिति में आने दें?
מִֽי־יִתֵּ֣ן טָ֭הֹור מִטָּמֵ֗א לֹ֣א אֶחָֽד׃ 4
अशुद्ध में से किसी शुद्ध वस्तु की सृष्टि कौन कर सकता है? कोई भी इस योग्य नहीं है!
אִ֥ם חֲרוּצִ֨ים ׀ יָמָ֗יו מִֽסְפַּר־חֳדָשָׁ֥יו אִתָּ֑ךְ חֻקֹּו (חֻקָּ֥יו) עָ֝שִׂ֗יתָ וְלֹ֣א יַעֲבֹֽור׃ 5
इसलिये कि मनुष्य का जीवन सीमित है; उसके जीवन के माह आपने नियत कर रखे हैं. साथ आपने उसकी सीमाएं निर्धारित कर दी हैं, कि वह इनके पार न जा सके.
שְׁעֵ֣ה מֵעָלָ֣יו וְיֶחְדָּ֑ל עַד־יִ֝רְצֶ֗ה כְּשָׂכִ֥יר יֹומֹֽו׃ 6
जब तक वह वैतनिक मज़दूर समान अपना समय पूर्ण करता है उस पर से अपनी दृष्टि हटा लीजिए, कि उसे विश्राम प्राप्‍त हो सके.
כִּ֤י יֵ֥שׁ לָעֵ֗ץ תִּ֫קְוָ֥ה אִֽם־יִ֭כָּרֵת וְעֹ֣וד יַחֲלִ֑יף וְ֝יֹֽנַקְתֹּ֗ו לֹ֣א תֶחְדָּֽל׃ 7
“वृक्ष के लिए तो सदैव आशा बनी रहती है: जब उसे काटा जाता है, उसके तने से अंकुर निकल आते हैं. उसकी डालियां विकसित हो जाती हैं.
אִם־יַזְקִ֣ין בָּאָ֣רֶץ שָׁרְשֹׁ֑ו וּ֝בֶעָפָ֗ר יָמ֥וּת גִּזְעֹֽו׃ 8
यद्यपि भूमि के भीतर इसकी मूल जीर्ण होती जाती है तथा भूमि में इसका ठूंठ नष्ट हो जाता है,
מֵרֵ֣יחַ מַ֣יִם יַפְרִ֑חַ וְעָשָׂ֖ה קָצִ֣יר כְּמֹו־נָֽטַע׃ 9
जल की गंध प्राप्‍त होते ही यह खिलने लगता है तथा पौधे के समान यह अपनी शाखाएं फैलाने लगता है.
וְגֶ֣בֶר יָ֭מוּת וַֽיֶּחֱלָ֑שׁ וַיִּגְוַ֖ע אָדָ֣ם וְאַיֹּֽו׃ 10
किंतु मनुष्य है कि, मृत्यु होने पर वह पड़ा रह जाता है; उसका श्वास समाप्‍त हुआ, कि वह अस्तित्वहीन रह जाता है.
אָֽזְלוּ־מַ֭יִם מִנִּי־יָ֑ם וְ֝נָהָ֗ר יֶחֱרַ֥ב וְיָבֵֽשׁ׃ 11
जैसे सागर का जल सूखते रहता है तथा नदी धूप से सूख जाती है,
וְאִ֥ישׁ שָׁכַ֗ב וְֽלֹא־יָ֫ק֥וּם עַד־בִּלְתִּ֣י שָׁ֭מַיִם לֹ֣א יָקִ֑יצוּ וְלֹֽא־יֵ֝עֹ֗רוּ מִשְּׁנָתָֽם׃ 12
उसी प्रकार मनुष्य, मृत्यु में पड़ा हुआ लेटा रह जाता है; आकाश के अस्तित्वहीन होने तक उसकी स्थिति यही रहेगी, उसे इस गहरी नींद से जगाया जाना असंभव है.
מִ֤י יִתֵּ֨ן ׀ בִּשְׁאֹ֬ול תַּצְפִּנֵ֗נִי תַּ֭סְתִּירֵנִי עַד־שׁ֣וּב אַפֶּ֑ךָ תָּ֤שִׁ֥ית לִ֖י חֹ֣ק וְתִזְכְּרֵֽנִי׃ (Sheol h7585) 13
“उत्तम तो यही होता कि आप मुझे अधोलोक में छिपा देते, आप मुझे अपने कोप के ठंडा होने तक छिपाए रहते! आप एक अवधि निश्चित करके इसके पूर्ण हो जाने पर मेरा स्मरण करते! (Sheol h7585)
אִם־יָמ֥וּת גֶּ֗בֶר הֲיִ֫חְיֶ֥ה כָּל־יְמֵ֣י צְבָאִ֣י אֲיַחֵ֑ל עַד־בֹּ֝֗וא חֲלִיפָתִֽי׃ 14
क्या मनुष्य के लिए यह संभव है कि उसकी मृत्यु के बाद वह जीवित हो जाए? अपने जीवन के समस्त श्रमपूर्ण वर्षों में मैं यही प्रतीक्षा करता रह जाऊंगा. कब होगा वह नवोदय?
תִּ֭קְרָא וְאָנֹכִ֣י אֶֽעֱנֶ֑ךָּ לְֽמַעֲשֵׂ֖ה יָדֶ֣יךָ תִכְסֹֽף׃ 15
आप आह्वान करो, तो मैं उत्तर दूंगा; आप अपने उस बनाए गये प्राणी की लालसा करेंगे.
כִּֽי־עַ֭תָּה צְעָדַ֣י תִּסְפֹּ֑ור לֹֽא־תִ֝שְׁמֹ֗ור עַל־חַטָּאתִֽי׃ 16
तब आप मेरे पैरों का लेख रखेंगे किंतु मेरे पापों का नहीं.
חָתֻ֣ם בִּצְרֹ֣ור פִּשְׁעִ֑י וַ֝תִּטְפֹּ֗ל עַל־עֲוֹנִֽי׃ 17
मेरे अपराध को एक थैली में मोहरबन्द कर दिया जाएगा; आप मेरे पापों को ढांप देंगे.
וְ֭אוּלָם הַר־נֹופֵ֣ל יִבֹּ֑ול וְ֝צ֗וּר יֶעְתַּ֥ק מִמְּקֹמֹֽו׃ 18
“जैसे पर्वत नष्ट होते-होते वह चूर-चूर हो जाता है, चट्टान अपने स्थान से हट जाती है.
אֲבָנִ֤ים ׀ שָׁ֥חֲקוּ מַ֗יִם תִּשְׁטֹֽף־סְפִיחֶ֥יהָ עֲפַר־אָ֑רֶץ וְתִקְוַ֖ת אֱנֹ֣ושׁ הֶאֱבַֽדְתָּ׃ 19
जल में भी पत्थरों को काटने की क्षमता होती है, तीव्र जल प्रवाह पृथ्वी की धूल साथ ले जाते हैं, आप भी मनुष्य की आशा के साथ यही करते हैं.
תִּתְקְפֵ֣הוּ לָ֭נֶצַח וַֽיַּהֲלֹ֑ךְ מְשַׁנֶּ֥ה פָ֝נָ֗יו וַֽתְּשַׁלְּחֵֽהוּ׃ 20
एक ही बार आप उसे ऐसा हराते हैं, कि वह मिट जाता है; आप उसका स्वरूप परिवर्तित कर देते हैं और उसे निकाल देते हैं.
יִכְבְּד֣וּ בָ֭נָיו וְלֹ֣א יֵדָ֑ע וְ֝יִצְעֲר֗וּ וְֽלֹא־יָבִ֥ין לָֽמֹו׃ 21
यदि उसकी संतान सम्मानित होती है, उसे तो इसका ज्ञान नहीं होता; अथवा जब वे अपमानित किए जाते हैं, वे इससे अनजान ही रहते हैं.
אַךְ־בְּ֭שָׂרֹו עָלָ֣יו יִכְאָ֑ב וְ֝נַפְשֹׁ֗ו עָלָ֥יו תֶּאֱבָֽל׃ פ 22
जब तक वह देह में होता है, पीड़ा का अनुभव करता है, इसी स्थिति में उसे वेदना का अनुभव होता है.”

< אִיּוֹב 14 >