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1 Die Worte des Davidsohnes Kohelet, des Königs von Jerusalem, lauten:
यरूशलेम के राजा, दाऊद के पुत्र और उपदेशक के वचन।
2 "Eitel, Eitelkeit", so spricht Kohelet, "Eitel, Eitelkeit, 's ist alles eitel."
उपदेशक का यह वचन है, “व्यर्थ ही व्यर्थ, व्यर्थ ही व्यर्थ! सब कुछ व्यर्थ है।”
3 Was hat der Mensch von seiner Mühe all, mit der er unter dieser Sonne regsam ist; ,
उस सब परिश्रम से जिसे मनुष्य सूर्य के नीचे करता है, उसको क्या लाभ प्राप्त होता है?
4 Geschlechter gehn, Geschlechter kommen; doch ewig bleibt die Erde stehen.
एक पीढ़ी जाती है, और दूसरी पीढ़ी आती है, परन्तु पृथ्वी सर्वदा बनी रहती है।
5 Aufgeht die Sonne, untergeht die Sonne, sie keucht nach ihrem Ort und geht doch wieder auf.
सूर्य उदय होकर अस्त भी होता है, और अपने उदय की दिशा को वेग से चला जाता है।
6 Der Wind weht nach dem Süden und kreist zum Norden; er geht im Kreis, und nur zu seinem Kreislauf kehrt der Wind zurück.
वायु दक्षिण की ओर बहती है, और उत्तर की ओर घूमती जाती है; वह घूमती और बहती रहती है, और अपनी परिधि में लौट आती है।
7 Die Ströme ziehen all zum Meere; doch wird das Meer nicht voll. Zur Stätte, wo der Ströme Quelle, kehren sie zu neuem Laufe.
सब नदियाँ समुद्र में जा मिलती हैं, तो भी समुद्र भर नहीं जाता; जिस स्थान से नदियाँ निकलती हैं; उधर ही को वे फिर जाती हैं।
8 Die Worte all versagen; kein Mensch kann es erklären; kein Auge völlig übersehen, kein Ohr erschöpfend es vernehmen.
सब बातें परिश्रम से भरी हैं; मनुष्य इसका वर्णन नहीं कर सकता; न तो आँखें देखने से तृप्त होती हैं, और न कान सुनने से भरते हैं।
9 Was einst gewesen, das ist jetzt, und was geschehen, das geschieht. Nichts Neues gibt es unter dieser Sonne.
जो कुछ हुआ था, वही फिर होगा, और जो कुछ बन चुका है वही फिर बनाया जाएगा; और सूर्य के नीचे कोई बात नई नहीं है।
10 Ist etwas da, wovon man sagen kann: "Sieh, dies ist neu!"? Es war schon längst zu einer Zeit, die vor uns liegt.
१०क्या ऐसी कोई बात है जिसके विषय में लोग कह सके कि देख यह नई है? यह तो प्राचीन युगों में बहुत पहले से थी।
11 Von den Verflossenen weiß man nichts; doch auch der Künftigen gedenken die nicht mehr, die später kommen.
११प्राचीनकाल की बातों का कुछ स्मरण नहीं रहा, और होनेवाली बातों का भी स्मरण उनके बाद होनेवालों को न रहेगा।
12 Ich, Kohelet, war zu Jerusalem ein König über Israel.
१२मैं उपदेशक यरूशलेम में इस्राएल का राजा था।
13 Ich war bedacht, zu forschen, zu ergründen an der Weisheit Hand, was unterm Himmel sich vollzieht. Ein leidig Ding, was Gott den Menschenkindern zugeteilt zu ihrer Plage.
१३मैंने अपना मन लगाया कि जो कुछ आकाश के नीचे किया जाता है, उसका भेद बुद्धि से सोच सोचकर मालूम करूँ; यह बड़े दुःख का काम है जो परमेश्वर ने मनुष्यों के लिये ठहराया है कि वे उसमें लगें।
14 Ich sah, was unter dieser Sonne je geschehen. Sieh, alles war nur eitel und Geistesspiel,
१४मैंने उन सब कामों को देखा जो सूर्य के नीचे किए जाते हैं; देखो वे सब व्यर्थ और मानो वायु को पकड़ना है।
15 nur Krummes, das man nie gerade macht, nur Mangelhaftes, das man nicht berechnen kann.
१५जो टेढ़ा है, वह सीधा नहीं हो सकता, और जितनी वस्तुओं में घटी है, वे गिनी नहीं जातीं।
16 Ich sagte mir: "Fürwahr, ich wurde groß und wuchs an Weisheit über alle, die vor mir zu Jerusalem geherrscht. Viel Weisheit und viel Wissen sah mein Geist."
१६मैंने मन में कहा, “देख, जितने यरूशलेम में मुझसे पहले थे, उन सभी से मैंने बहुत अधिक बुद्धि प्राप्त की है; और मुझ को बहुत बुद्धि और ज्ञान मिल गया है।”
17 Doch als ich meinen Sinn darauf gelenkt, herauszubringen, was es um die Weisheit und um Wissen sei, um Torheit und um Tollheit, da kam ich zu der Einsicht: Auch das ist selbst ein Hirngespinst.
१७और मैंने अपना मन लगाया कि बुद्धि का भेद लूँ और बावलेपन और मूर्खता को भी जान लूँ। मुझे जान पड़ा कि यह भी वायु को पकड़ना है।
18 Denn wo viel Weisheit, ist viel Ärger. Wer Wissen mehrt, der mehrt auch Leid.
१८क्योंकि बहुत बुद्धि के साथ बहुत खेद भी होता है, और जो अपना ज्ञान बढ़ाता है वह अपना दुःख भी बढ़ाता है।

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