< ܪ̈ܗܘܡܝܐ 2 >

ܡܛܠ ܗܢܐ ܠܝܬ ܠܟ ܡܦܩ ܒܪܘܚܐ ܐܘ ܒܪܢܫܐ ܕܐܢ ܚܒܪܗ ܒܗܘ ܓܝܪ ܕܕܐܢ ܐܢܬ ܚܒܪܟ ܢܦܫܟ ܗܘ ܡܚܝܒ ܐܢܬ ܐܦ ܐܢܬ ܓܝܪ ܕܕܐܢ ܐܢܬ ܒܗܝܢ ܗܘ ܡܬܗܦܟ ܐܢܬ 1
हे परदूषक मनुष्य यः कश्चन त्वं भवसि तवोत्तरदानाय पन्था नास्ति यतो यस्मात् कर्म्मणः परस्त्वया दूष्यते तस्मात् त्वमपि दूष्यसे, यतस्तं दूषयन्नपि त्वं तद्वद् आचरसि।
ܘܝܕܥܝܢܢ ܕܐܝܬܘܗܝ ܕܝܢܗ ܕܐܠܗܐ ܒܩܘܫܬܐ ܥܠ ܐܝܠܝܢ ܕܒܗܠܝܢ ܡܬܗܦܟܝܢ 2
किन्त्वेतादृगाचारिभ्यो यं दण्डम् ईश्वरो निश्चिनोति स यथार्थ इति वयं जानीमः।
ܡܢܐ ܕܝܢ ܡܬܚܫܒ ܐܢܬ ܐܘ ܒܪܢܫܐ ܕܕܐܢ ܐܢܬ ܠܐܝܠܝܢ ܕܒܗܠܝܢ ܡܬܗܦܟܝܢ ܟܕ ܐܦ ܐܢܬ ܒܗܝܢ ܡܬܗܦܟ ܐܢܬ ܕܐܢܬ ܬܥܪܘܩ ܡܢ ܕܝܢܗ ܕܐܠܗܐ 3
अतएव हे मानुष त्वं यादृगाचारिणो दूषयसि स्वयं यदि तादृगाचरसि तर्हि त्वम् ईश्वरदण्डात् पलायितुं शक्ष्यसीति किं बुध्यसे?
ܐܘ ܥܠ ܥܘܬܪܐ ܕܒܤܝܡܘܬܗ ܘܥܠ ܡܓܪܬ ܪܘܚܗ ܘܥܠ ܐܬܪܐ ܕܝܗܒ ܠܟ ܡܡܪܚ ܐܢܬ ܘܠܐ ܝܕܥ ܐܢܬ ܕܒܤܝܡܘܬܗ ܕܐܠܗܐ ܠܬܝܒܘܬܐ ܗܘ ܡܝܬܝܐ ܠܟ 4
अपरं तव मनसः परिवर्त्तनं कर्त्तुम् इश्वरस्यानुग्रहो भवति तन्न बुद्ध्वा त्वं किं तदीयानुग्रहक्षमाचिरसहिष्णुत्वनिधिं तुच्छीकरोषि?
ܐܠܐ ܡܛܠ ܩܫܝܘܬ ܠܒܟ ܕܠܐ ܬܐܒ ܤܐܡ ܐܢܬ ܠܟ ܤܝܡܬܐ ܕܪܘܓܙܐ ܠܝܘܡܐ ܕܪܘܓܙܐ ܘܠܓܠܝܢܐ ܕܕܝܢܐ ܟܐܢܐ ܕܐܠܗܐ 5
तथा स्वान्तःकरणस्य कठोरत्वात् खेदराहित्याच्चेश्वरस्य न्याय्यविचारप्रकाशनस्य क्रोधस्य च दिनं यावत् किं स्वार्थं कोपं सञ्चिनोषि?
ܗܘ ܕܦܪܥ ܠܟܠܢܫ ܐܝܟ ܥܒܕܘܗܝ 6
किन्तु स एकैकमनुजाय तत्कर्म्मानुसारेण प्रतिफलं दास्यति;
ܠܐܝܠܝܢ ܕܒܡܤܝܒܪܢܘܬܐ ܕܥܒܕܐ ܛܒܐ ܬܫܒܘܚܬܐ ܘܐܝܩܪܐ ܘܠܐ ܡܬܚܒܠܢܘܬܐ ܒܥܝܢ ܝܗܒ ܠܗܘܢ ܚܝܐ ܕܠܥܠܡ (aiōnios g166) 7
वस्तुतस्तु ये जना धैर्य्यं धृत्वा सत्कर्म्म कुर्व्वन्तो महिमा सत्कारोऽमरत्वञ्चैतानि मृगयन्ते तेभ्योऽनन्तायु र्दास्यति। (aiōnios g166)
ܐܝܠܝܢ ܕܝܢ ܕܥܨܝܢ ܘܠܐ ܡܬܛܦܝܤܝܢ ܠܫܪܪܐ ܐܠܐ ܠܥܘܠܐ ܡܬܛܦܝܤܝܢ ܢܦܪܘܥ ܐܢܘܢ ܪܘܓܙܐ ܘܚܡܬܐ 8
अपरं ये जनाः सत्यधर्म्मम् अगृहीत्वा विपरीतधर्म्मम् गृह्लन्ति तादृशा विरोधिजनाः कोपं क्रोधञ्च भोक्ष्यन्ते।
ܘܐܘܠܨܢܐ ܘܛܘܪܦܐ ܠܟܠ ܒܪܢܫ ܕܦܠܚ ܒܝܫܬܐ ܠܝܗܘܕܝܐ ܠܘܩܕܡ ܘܠܐܪܡܝܐ 9
आ यिहूदिनोऽन्यदेशिनः पर्य्यन्तं यावन्तः कुकर्म्मकारिणः प्राणिनः सन्ति ते सर्व्वे दुःखं यातनाञ्च गमिष्यन्ति;
ܬܫܒܘܚܬܐ ܕܝܢ ܘܐܝܩܪܐ ܘܫܠܡܐ ܠܟܠ ܕܦܠܚ ܛܒܬܐ ܠܝܗܘܕܝܐ ܠܘܩܕܡ ܘܠܐܪܡܝܐ 10
किन्तु आ यिहूदिनो भिन्नदेशिपर्य्यन्ता यावन्तः सत्कर्म्मकारिणो लोकाः सन्ति तान् प्रति महिमा सत्कारः शान्तिश्च भविष्यन्ति।
ܠܐ ܓܝܪ ܐܝܬ ܡܤܒ ܒܐܦܐ ܠܘܬ ܐܠܗܐ 11
ईश्वरस्य विचारे पक्षपातो नास्ति।
ܐܝܠܝܢ ܓܝܪ ܕܕܠܐ ܢܡܘܤܐ ܚܛܘ ܐܦ ܕܠܐ ܢܡܘܤܐ ܢܐܒܕܘܢ ܘܐܝܠܝܢ ܕܒܢܡܘܤܐ ܚܛܘ ܡܢ ܢܡܘܤܐ ܢܬܕܝܢܘܢ 12
अलब्धव्यवस्थाशास्त्रै र्यैः पापानि कृतानि व्यवस्थाशास्त्रालब्धत्वानुरूपस्तेषां विनाशो भविष्यति; किन्तु लब्धव्यवस्थाशास्त्रा ये पापान्यकुर्व्वन् व्यवस्थानुसारादेव तेषां विचारो भविष्यति।
ܠܐ ܗܘܐ ܓܝܪ ܫܡܘܥܘܗܝ ܕܢܡܘܤܐ ܟܐܢܝܢ ܩܕܡ ܐܠܗܐ ܐܠܐ ܥܒܘܕܘܗܝ ܕܢܡܘܤܐ ܡܙܕܕܩܝܢ 13
व्यवस्थाश्रोतार ईश्वरस्य समीपे निष्पापा भविष्यन्तीति नहि किन्तु व्यवस्थाचारिण एव सपुण्या भविष्यन्ति।
ܐܢ ܓܝܪ ܥܡܡܐ ܕܢܡܘܤܐ ܠܝܬ ܠܗܘܢ ܡܢ ܟܝܢܗܘܢ ܢܥܒܕܘܢ ܕܢܡܘܤܐ ܗܢܘܢ ܕܟܕ ܢܡܘܤܐ ܠܝܬ ܗܘܐ ܠܗܘܢ ܠܢܦܫܗܘܢ ܗܘܘ ܢܡܘܤܐ 14
यतो ऽलब्धव्यवस्थाशास्त्रा भिन्नदेशीयलोका यदि स्वभावतो व्यवस्थानुरूपान् आचारान् कुर्व्वन्ति तर्ह्यलब्धशास्त्राः सन्तोऽपि ते स्वेषां व्यवस्थाशास्त्रमिव स्वयमेव भवन्ति।
ܘܗܢܘܢ ܡܚܘܝܢ ܥܒܕܗ ܕܢܡܘܤܐ ܟܕ ܟܬܝܒ ܥܠ ܠܒܗܘܢ ܘܡܤܗܕܐ ܥܠܝܗܘܢ ܬܐܪܬܗܘܢ ܟܕ ܡܚܫܒܬܗܘܢ ܡܟܘܢܢ ܐܘ ܢܦܩܢ ܪܘܚܐ ܠܚܕܕܐ 15
तेषां मनसि साक्षिस्वरूपे सति तेषां वितर्केषु च कदा तान् दोषिणः कदा वा निर्दोषान् कृतवत्सु ते स्वान्तर्लिखितस्य व्यवस्थाशास्त्रस्य प्रमाणं स्वयमेव ददति।
ܒܝܘܡܐ ܕܕܐܢ ܐܠܗܐ ܟܤܝܬܐ ܕܒܢܝܢܫܐ ܐܝܟ ܐܘܢܓܠܝܘܢ ܕܝܠܝ ܒܝܕ ܝܫܘܥ ܡܫܝܚܐ 16
यस्मिन् दिने मया प्रकाशितस्य सुसंवादस्यानुसाराद् ईश्वरो यीशुख्रीष्टेन मानुषाणाम् अन्तःकरणानां गूढाभिप्रायान् धृत्वा विचारयिष्यति तस्मिन् विचारदिने तत् प्रकाशिष्यते।
ܐܢ ܐܢܬ ܕܝܢ ܕܝܗܘܕܝܐ ܡܬܩܪܐ ܐܢܬ ܘܡܬܬܢܝܚ ܐܢܬ ܥܠ ܢܡܘܤܐ ܘܡܫܬܒܗܪ ܐܢܬ ܒܐܠܗܐ 17
पश्य त्वं स्वयं यिहूदीति विख्यातो व्यवस्थोपरि विश्वासं करोषि,
ܕܝܕܥ ܐܢܬ ܨܒܝܢܗ ܘܦܪܫ ܐܢܬ ܘܠܝܬܐ ܕܝܠܝܦ ܐܢܬ ܡܢ ܢܡܘܤܐ 18
ईश्वरमुद्दिश्य स्वं श्लाघसे, तथा व्यवस्थया शिक्षितो भूत्वा तस्याभिमतं जानासि, सर्व्वासां कथानां सारं विविंक्षे,
ܘܐܬܬܟܠܬ ܥܠ ܢܦܫܟ ܕܡܕܒܪܢܐ ܐܢܬ ܕܥܘܝܪܐ ܘܢܘܗܪܐ ܕܐܝܠܝܢ ܕܐܝܬܝܗܘܢ ܒܚܫܘܟܐ 19
अपरं ज्ञानस्य सत्यतायाश्चाकरस्वरूपं शास्त्रं मम समीपे विद्यत अतो ऽन्धलोकानां मार्गदर्शयिता
ܘܪܕܘܝܐ ܕܚܤܝܪܝ ܪܥܝܢܐ ܘܡܠܦܢܐ ܕܛܠܝܐ ܘܐܝܬ ܠܟ ܕܘܡܝܐ ܕܝܕܥܬܐ ܘܕܫܪܪܐ ܒܢܡܘܤܐ 20
तिमिरस्थितलोकानां मध्ये दीप्तिस्वरूपोऽज्ञानलोकेभ्यो ज्ञानदाता शिशूनां शिक्षयिताहमेवेति मन्यसे।
ܐܢܬ ܗܟܝܠ ܕܡܠܦ ܐܢܬ ܠܐܚܪܢܐ ܠܢܦܫܟ ܠܐ ܡܠܦ ܐܢܬ ܘܕܡܟܪܙ ܐܢܬ ܕܠܐ ܢܓܢܒܘܢ ܐܢܬ ܓܢܒ ܐܢܬ 21
परान् शिक्षयन् स्वयं स्वं किं न शिक्षयसि? वस्तुतश्चौर्य्यनिषेधव्यवस्थां प्रचारयन् त्वं किं स्वयमेव चोरयसि?
ܘܕܐܡܪ ܐܢܬ ܕܠܐ ܢܓܘܪܘܢ ܐܢܬ ܓܐܪ ܐܢܬ ܘܐܢܬ ܕܫܐܛ ܐܢܬ ܦܬܟܪܐ ܡܚܠܨ ܐܢܬ ܒܝܬ ܡܩܕܫܐ 22
तथा परदारगमनं प्रतिषेधन् स्वयं किं परदारान् गच्छसि? तथा त्वं स्वयं प्रतिमाद्वेषी सन् किं मन्दिरस्य द्रव्याणि हरसि?
ܘܐܢܬ ܕܡܫܬܒܗܪ ܐܢܬ ܒܢܡܘܤܐ ܒܗܘ ܕܥܒܪ ܐܢܬ ܥܠ ܢܡܘܤܐ ܠܐܠܗܐ ܗܘ ܡܨܥܪ ܐܢܬ 23
यस्त्वं व्यवस्थां श्लाघसे स त्वं किं व्यवस्थाम् अवमत्य नेश्वरं सम्मन्यसे?
ܫܡܗ ܓܝܪ ܕܐܠܗܐ ܡܛܠܬܟܘܢ ܗܘ ܡܬܓܕܦ ܒܝܬ ܥܡܡܐ ܐܝܟ ܕܟܬܝܒ 24
शास्त्रे यथा लिखति "भिन्नदेशिनां समीपे युष्माकं दोषाद् ईश्वरस्य नाम्नो निन्दा भवति।"
ܓܙܘܪܬܐ ܓܝܪ ܡܗܢܝܐ ܐܢ ܢܡܘܤܐ ܬܓܡܘܪ ܐܢ ܬܥܒܪ ܠܟ ܕܝܢ ܡܢ ܢܡܘܤܐ ܓܙܘܪܬܟ ܗܘܬ ܠܗ ܥܘܪܠܘܬܐ 25
यदि व्यवस्थां पालयसि तर्हि तव त्वक्छेदक्रिया सफला भवति; यति व्यवस्थां लङ्घसे तर्हि तव त्वक्छेदोऽत्वक्छेदो भविष्यति।
ܐܢ ܗܘ ܕܝܢ ܕܥܘܪܠܘܬܐ ܬܛܪ ܦܘܩܕܢܗ ܕܢܡܘܤܐ ܠܐ ܗܐ ܥܘܪܠܘܬܐ ܡܬܚܫܒܐ ܠܗ ܓܙܘܪܬܐ 26
यतो व्यवस्थाशास्त्रादिष्टधर्म्मकर्म्माचारी पुमान् अत्वक्छेदी सन्नपि किं त्वक्छेदिनां मध्ये न गणयिष्यते?
ܘܬܕܘܢ ܥܘܪܠܘܬܐ ܕܡܢ ܟܝܢܗ ܓܡܪܐ ܢܡܘܤܐ ܠܟ ܕܒܟܬܒܐ ܘܒܓܙܘܪܬܐ ܥܒܪ ܐܢܬ ܥܠ ܢܡܘܤܐ 27
किन्तु लब्धशास्त्रश्छिन्नत्वक् च त्वं यदि व्यवस्थालङ्घनं करोषि तर्हि व्यवस्थापालकाः स्वाभाविकाच्छिन्नत्वचो लोकास्त्वां किं न दूषयिष्यन्ति?
ܠܐ ܗܘܐ ܓܝܪ ܡܢ ܕܒܓܠܝܐ ܗܘ ܗܘ ܝܗܘܕܝܐ ܐܦܠܐ ܐܝܕܐ ܕܡܬܚܙܝܐ ܒܒܤܪܐ ܓܙܘܪܬܐ 28
तस्माद् यो बाह्ये यिहूदी स यिहूदी नहि तथाङ्गस्य यस्त्वक्छेदः स त्वक्छेदो नहि;
ܐܠܐ ܗܘ ܗܘ ܝܗܘܕܝܐ ܐܝܢܐ ܕܒܟܤܝܐ ܗܘ ܘܓܙܘܪܬܐ ܐܝܕܐ ܕܕܠܒܐ ܗܝ ܒܪܘܚ ܘܠܐ ܒܟܬܒܐ ܐܝܕܐ ܕܬܫܒܘܚܬܗ ܠܐ ܗܘܬ ܡܢ ܒܢܝ ܐܢܫܐ ܐܠܐ ܡܢ ܐܠܗܐ 29
किन्तु यो जन आन्तरिको यिहूदी स एव यिहूदी अपरञ्च केवललिखितया व्यवस्थया न किन्तु मानसिको यस्त्वक्छेदो यस्य च प्रशंसा मनुष्येभ्यो न भूत्वा ईश्वराद् भवति स एव त्वक्छेदः।

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