< ܠܘܩܘܣ 20 >
ܘܗܘܐ ܒܚܕ ܡܢ ܝܘܡܬܐ ܟܕ ܡܠܦ ܒܗܝܟܠܐ ܠܥܡܐ ܘܡܤܒܪ ܩܡܘ ܥܠܘܗܝ ܪܒܝ ܟܗܢܐ ܘܤܦܪܐ ܥܡ ܩܫܝܫܐ | 1 |
अथैकदा यीशु र्मनिदरे सुसंवादं प्रचारयन् लोकानुपदिशति, एतर्हि प्रधानयाजका अध्यापकाः प्राञ्चश्च तन्निकटमागत्य पप्रच्छुः
ܘܐܡܪܝܢ ܠܗ ܐܡܪ ܠܢ ܒܐܝܢܐ ܫܘܠܛܢܐ ܗܠܝܢ ܥܒܕ ܐܢܬ ܘܡܢܘ ܗܘ ܕܝܗܒ ܠܟ ܫܘܠܛܢܐ ܗܢܐ | 2 |
कयाज्ञया त्वं कर्म्माण्येतानि करोषि? को वा त्वामाज्ञापयत्? तदस्मान् वद।
ܥܢܐ ܝܫܘܥ ܘܐܡܪ ܠܗܘܢ ܐܫܐܠܟܘܢ ܐܦ ܐܢܐ ܡܠܬܐ ܘܐܡܪܘ ܠܝ | 3 |
स प्रत्युवाच, तर्हि युष्मानपि कथामेकां पृच्छामि तस्योत्तरं वदत।
ܡܥܡܘܕܝܬܗ ܕܝܘܚܢܢ ܡܢ ܫܡܝܐ ܗܘܬ ܐܘ ܡܢ ܒܢܝ ܐܢܫܐ | 4 |
योहनो मज्जनम् ईश्वरस्य मानुषाणां वाज्ञातो जातं?
ܗܢܘܢ ܕܝܢ ܡܬܚܫܒܝܢ ܗܘܘ ܒܢܦܫܗܘܢ ܘܐܡܪܝܢ ܕܐܢ ܢܐܡܪ ܡܢ ܫܡܝܐ ܐܡܪ ܠܢ ܘܡܛܠ ܡܢܐ ܠܐ ܗܝܡܢܬܘܢܝܗܝ | 5 |
ततस्ते मिथो विविच्य जगदुः, यदीश्वरस्य वदामस्तर्हि तं कुतो न प्रत्यैत स इति वक्ष्यति।
ܐܢ ܕܝܢ ܢܐܡܪ ܡܢ ܒܢܝ ܐܢܫܐ ܪܓܡ ܠܢ ܥܡܐ ܟܠܗ ܡܦܤܝܢ ܓܝܪ ܕܝܘܚܢܢ ܢܒܝܐ ܗܘ | 6 |
यदि मनुष्यस्येति वदामस्तर्हि सर्व्वे लोका अस्मान् पाषाणै र्हनिष्यन्ति यतो योहन् भविष्यद्वादीति सर्व्वे दृढं जानन्ति।
ܘܐܡܪܘ ܠܗ ܕܠܐ ܝܕܥܝܢܢ ܡܢ ܐܝܡܟܐ ܗܝ | 7 |
अतएव ते प्रत्यूचुः कस्याज्ञया जातम् इति वक्तुं न शक्नुमः।
ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܝܫܘܥ ܘܠܐ ܐܢܐ ܐܡܪ ܐܢܐ ܠܟܘܢ ܒܐܝܢܐ ܫܘܠܛܢܐ ܗܠܝܢ ܥܒܕ ܐܢܐ | 8 |
तदा यीशुरवदत् तर्हि कयाज्ञया कर्म्माण्येताति करोमीति च युष्मान् न वक्ष्यामि।
ܘܫܪܝ ܕܢܐܡܪ ܠܥܡܐ ܡܬܠܐ ܗܢܐ ܓܒܪܐ ܚܕ ܢܨܒ ܟܪܡܐ ܘܐܘܚܕܗ ܠܦܠܚܐ ܘܐܒܥܕ ܙܒܢܐ ܤܓܝܐܐ | 9 |
अथ लोकानां साक्षात् स इमां दृष्टान्तकथां वक्तुमारेभे, कश्चिद् द्राक्षाक्षेत्रं कृत्वा तत् क्षेत्रं कृषीवलानां हस्तेषु समर्प्य बहुकालार्थं दूरदेशं जगाम।
ܘܒܙܒܢܐ ܫܕܪ ܥܒܕܗ ܠܘܬ ܦܠܚܐ ܕܢܬܠܘܢ ܠܗ ܡܢ ܦܐܪܐ ܕܟܪܡܐ ܦܠܚܐ ܕܝܢ ܡܚܐܘܗܝ ܘܫܕܪܘܗܝ ܟܕ ܤܪܝܩ | 10 |
अथ फलकाले फलानि ग्रहीतु कृषीवलानां समीपे दासं प्राहिणोत् किन्तु कृषीवलास्तं प्रहृत्य रिक्तहस्तं विससर्जुः।
ܘܐܘܤܦ ܘܫܕܪ ܠܥܒܕܗ ܐܚܪܢܐ ܗܢܘܢ ܕܝܢ ܐܦ ܠܗܘ ܡܚܐܘܗܝ ܘܨܥܪܘܗܝ ܘܫܕܪܘܗܝ ܟܕ ܤܪܝܩ | 11 |
ततः सोधिपतिः पुनरन्यं दासं प्रेषयामास, ते तमपि प्रहृत्य कुव्यवहृत्य रिक्तहस्तं विससृजुः।
ܘܐܘܤܦ ܘܫܕܪ ܕܬܠܬܐ ܗܢܘܢ ܕܝܢ ܘܐܦ ܠܗܘ ܨܠܦܘܗܝ ܘܐܦܩܘܗܝ | 12 |
ततः स तृतीयवारम् अन्यं प्राहिणोत् ते तमपि क्षताङ्गं कृत्वा बहि र्निचिक्षिपुः।
ܐܡܪ ܡܪܐ ܟܪܡܐ ܡܢܐ ܐܥܒܕ ܐܫܕܪ ܒܪܝ ܚܒܝܒܐ ܟܒܪ ܢܚܙܘܢܝܗܝ ܘܢܬܟܚܕܘܢ | 13 |
तदा क्षेत्रपति र्विचारयामास, ममेदानीं किं कर्त्तव्यं? मम प्रिये पुत्रे प्रहिते ते तमवश्यं दृष्ट्वा समादरिष्यन्ते।
ܟܕ ܚܙܐܘܗܝ ܕܝܢ ܦܠܚܐ ܡܬܚܫܒܝܢ ܗܘܘ ܒܢܦܫܗܘܢ ܘܐܡܪܝܢ ܗܢܘ ܝܪܬܐ ܬܘ ܢܩܛܠܝܘܗܝ ܘܬܗܘܐ ܝܪܬܘܬܐ ܕܝܠܢ | 14 |
किन्तु कृषीवलास्तं निरीक्ष्य परस्परं विविच्य प्रोचुः, अयमुत्तराधिकारी आगच्छतैनं हन्मस्ततोधिकारोस्माकं भविष्यति।
ܘܐܦܩܘܗܝ ܠܒܪ ܡܢ ܟܪܡܐ ܘܩܛܠܘܗܝ ܡܢܐ ܗܟܝܠ ܢܥܒܕ ܠܗܘܢ ܡܪܐ ܟܪܡܐ | 15 |
ततस्ते तं क्षेत्राद् बहि र्निपात्य जघ्नुस्तस्मात् स क्षेत्रपतिस्तान् प्रति किं करिष्यति?
ܢܐܬܐ ܘܢܘܒܕ ܠܦܠܚܐ ܗܢܘܢ ܘܢܬܠ ܟܪܡܐ ܠܐܚܪܢܐ ܟܕ ܫܡܥܘ ܕܝܢ ܐܡܪܘ ܠܐ ܬܗܘܐ ܗܕܐ | 16 |
स आगत्य तान् कृषीवलान् हत्वा परेषां हस्तेषु तत्क्षेत्रं समर्पयिष्यति; इति कथां श्रुत्वा ते ऽवदन् एतादृशी घटना न भवतु।
ܗܘ ܕܝܢ ܚܪ ܒܗܘܢ ܘܐܡܪ ܘܡܢܐ ܗܝ ܗܝ ܕܟܬܝܒܐ ܕܟܐܦܐ ܕܐܤܠܝܘ ܒܢܝܐ ܗܝ ܗܘܬ ܠܪܝܫ ܩܪܢܐ ܕܙܘܝܬܐ | 17 |
किन्तु यीशुस्तानवलोक्य जगाद, तर्हि, स्थपतयः करिष्यन्ति ग्रावाणं यन्तु तुच्छकं। प्रधानप्रस्तरः कोणे स एव हि भविष्यति। एतस्य शास्त्रीयवचनस्य किं तात्पर्य्यं?
ܘܟܠ ܕܢܦܠ ܥܠ ܗܝ ܟܐܦܐ ܢܬܪܥܥ ܘܟܠ ܡܢ ܕܗܝ ܬܦܠ ܥܠܘܗܝ ܬܕܪܝܘܗܝ | 18 |
अपरं तत्पाषाणोपरि यः पतिष्यति स भंक्ष्यते किन्तु यस्योपरि स पाषाणः पतिष्यति स तेन धूलिवच् चूर्णीभविष्यति।
ܒܥܘ ܗܘܘ ܕܝܢ ܪܒܝ ܟܗܢܐ ܘܤܦܪܐ ܕܢܪܡܘܢ ܥܠܘܗܝ ܐܝܕܝܐ ܒܗܝ ܫܥܬܐ ܘܕܚܠܘ ܡܢ ܥܡܐ ܝܕܥܘ ܓܝܪ ܕܥܠܝܗܘܢ ܐܡܪ ܡܬܠܐ ܗܢܐ | 19 |
सोस्माकं विरुद्धं दृष्टान्तमिमं कथितवान् इति ज्ञात्वा प्रधानयाजका अध्यापकाश्च तदैव तं धर्तुं ववाञ्छुः किन्तु लोकेभ्यो बिभ्युः।
ܘܫܕܪܘ ܠܘܬܗ ܓܫܘܫܐ ܕܡܬܕܡܝܢ ܒܙܕܝܩܐ ܕܢܐܚܕܘܢܝܗܝ ܒܡܠܬܐ ܘܢܫܠܡܘܢܝܗܝ ܠܕܝܢܐ ܘܠܫܘܠܛܢܗ ܕܗܓܡܘܢܐ | 20 |
अतएव तं प्रति सतर्काः सन्तः कथं तद्वाक्यदोषं धृत्वा तं देशाधिपस्य साधुवेशधारिणश्चरान् तस्य समीपे प्रेषयामासुः।
ܘܫܐܠܘܗܝ ܘܐܡܪܝܢ ܠܗ ܡܠܦܢܐ ܝܕܥܝܢܢ ܕܬܪܝܨܐܝܬ ܡܡܠܠ ܐܢܬ ܘܡܠܦ ܘܠܐ ܢܤܒ ܐܢܬ ܒܐܦܐ ܐܠܐ ܒܩܘܫܬܐ ܐܘܪܚܐ ܕܐܠܗܐ ܡܠܦ ܐܢܬ | 21 |
तदा ते तं पप्रच्छुः, हे उपदेशक भवान् यथार्थं कथयन् उपदिशति, कमप्यनपेक्ष्य सत्यत्वेनैश्वरं मार्गमुपदिशति, वयमेतज्जानीमः।
ܫܠܝܛ ܠܢ ܕܢܬܠ ܟܤܦ ܪܫܐ ܠܩܤܪ ܐܘ ܠܐ | 22 |
कैसरराजाय करोस्माभि र्देयो न वा?
ܗܘ ܕܝܢ ܐܤܬܟܠ ܚܪܥܘܬܗܘܢ ܘܐܡܪ ܡܢܐ ܡܢܤܝܢ ܐܢܬܘܢ ܠܝ | 23 |
स तेषां वञ्चनं ज्ञात्वावदत् कुतो मां परीक्षध्वे? मां मुद्रामेकं दर्शयत।
ܚܘܐܘܢܝ ܕܝܢܪܐ ܕܡܢ ܐܝܬ ܒܗ ܨܠܡܐ ܘܟܬܝܒܬܐ ܗܢܘܢ ܕܝܢ ܐܡܪܘ ܕܩܤܪ | 24 |
इह लिखिता मूर्तिरियं नाम च कस्य? तेऽवदन् कैसरस्य।
ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܝܫܘܥ ܗܒܘ ܗܟܝܠ ܕܩܤܪ ܠܩܤܪ ܘܕܐܠܗܐ ܠܐܠܗܐ | 25 |
तदा स उवाच, तर्हि कैसरस्य द्रव्यं कैसराय दत्त; ईश्वरस्य तु द्रव्यमीश्वराय दत्त।
ܘܠܐ ܐܫܟܚܘ ܠܡܐܚܕ ܡܢܗ ܡܠܬܐ ܩܕܡ ܥܡܐ ܘܐܬܕܡܪܘ ܥܠ ܦܬܓܡܗ ܘܫܬܩܘ | 26 |
तस्माल्लोकानां साक्षात् तत्कथायाः कमपि दोषं धर्तुमप्राप्य ते तस्योत्तराद् आश्चर्य्यं मन्यमाना मौनिनस्तस्थुः।
ܩܪܒܘ ܕܝܢ ܐܢܫܝܢ ܡܢ ܙܕܘܩܝܐ ܗܢܘܢ ܕܐܡܪܝܢ ܕܩܝܡܬܐ ܠܝܬ ܘܫܐܠܘܗܝ | 27 |
अपरञ्च श्मशानादुत्थानानङ्गीकारिणां सिदूकिनां कियन्तो जना आगत्य तं पप्रच्छुः,
ܘܐܡܪܝܢ ܠܗ ܡܠܦܢܐ ܡܘܫܐ ܟܬܒ ܠܢ ܕܐܢ ܐܢܫ ܢܡܘܬ ܐܚܘܗܝ ܕܐܝܬ ܠܗ ܐܢܬܬܐ ܕܠܐ ܒܢܝܐ ܢܤܒ ܐܚܘܗܝ ܐܢܬܬܗ ܘܢܩܝܡ ܙܪܥܐ ܠܐܚܘܗܝ | 28 |
हे उपदेशक शास्त्रे मूसा अस्मान् प्रतीति लिलेख यस्य भ्राता भार्य्यायां सत्यां निःसन्तानो म्रियते स तज्जायां विवह्य तद्वंशम् उत्पादयिष्यति।
ܫܒܥܐ ܕܝܢ ܐܚܝܢ ܐܝܬ ܗܘܘ ܩܕܡܝܐ ܢܤܒ ܐܢܬܬܐ ܘܡܝܬ ܕܠܐ ܒܢܝܐ | 29 |
तथाच केचित् सप्त भ्रातर आसन् तेषां ज्येष्ठो भ्राता विवह्य निरपत्यः प्राणान् जहौ।
ܘܢܤܒܗ ܕܬܪܝܢ ܠܐܢܬܬܗ ܘܗܢܐ ܡܝܬ ܕܠܐ ܒܢܝܐ | 30 |
अथ द्वितीयस्तस्य जायां विवह्य निरपत्यः सन् ममार। तृतीयश्च तामेव व्युवाह;
ܘܕܬܠܬܐ ܬܘܒ ܢܤܒܗ ܘܗܟܘܬ ܘܐܦ ܫܒܥܬܝܗܘܢ ܘܡܝܬܘ ܘܠܐ ܫܒܩܘ ܒܢܝܐ | 31 |
इत्थं सप्त भ्रातरस्तामेव विवह्य निरपत्याः सन्तो मम्रुः।
ܒܩܝܡܬܐ ܗܟܝܠ ܕܐܝܢܐ ܡܢܗܘܢ ܬܗܘܐ ܐܢܬܬܐ ܫܒܥܬܝܗܘܢ ܓܝܪ ܢܤܒܘܗ | 33 |
अतएव श्मशानादुत्थानकाले तेषां सप्तजनानां कस्य सा भार्य्या भविष्यति? यतः सा तेषां सप्तानामेव भार्य्यासीत्।
ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܝܫܘܥ ܒܢܘܗܝ ܕܥܠܡܐ ܗܢܐ ܢܤܒܝܢ ܢܫܐ ܘܢܫܐ ܗܘܝܢ ܠܓܒܪܐ (aiōn ) | 34 |
तदा यीशुः प्रत्युवाच, एतस्य जगतो लोका विवहन्ति वाग्दत्ताश्च भवन्ति (aiōn )
ܗܢܘܢ ܕܝܢ ܕܠܗܘ ܥܠܡܐ ܫܘܘ ܘܠܩܝܡܬܐ ܕܡܢ ܒܝܬ ܡܝܬܐ ܠܐ ܢܤܒܝܢ ܢܫܐ ܘܐܦ ܠܐ ܢܫܐ ܗܘܝܢ ܠܓܒܪܐ (aiōn ) | 35 |
किन्तु ये तज्जगत्प्राप्तियोग्यत्वेन गणितां भविष्यन्ति श्मशानाच्चोत्थास्यन्ति ते न विवहन्ति वाग्दत्ताश्च न भवन्ति, (aiōn )
ܐܦܠܐ ܓܝܪ ܬܘܒ ܠܡܡܬ ܡܫܟܚܝܢ ܐܝܟ ܡܠܐܟܐ ܐܢܘܢ ܓܝܪ ܘܒܢܝܐ ܐܝܬܝܗܘܢ ܕܐܠܗܐ ܡܛܠ ܕܗܘܘ ܒܢܝܐ ܕܩܝܡܬܐ | 36 |
ते पुन र्न म्रियन्ते किन्तु श्मशानादुत्थापिताः सन्त ईश्वरस्य सन्तानाः स्वर्गीयदूतानां सदृशाश्च भवन्ति।
ܕܩܝܡܝܢ ܕܝܢ ܡܝܬܐ ܐܦ ܡܘܫܐ ܒܕܩ ܐܕܟܪ ܓܝܪ ܒܤܢܝܐ ܟܕ ܐܡܪ ܡܪܝܐ ܐܠܗܗ ܕܐܒܪܗܡ ܘܐܠܗܗ ܕܐܝܤܚܩ ܘܐܠܗܗ ܕܝܥܩܘܒ | 37 |
अधिकन्तु मूसाः स्तम्बोपाख्याने परमेश्वर ईब्राहीम ईश्वर इस्हाक ईश्वरो याकूबश्चेश्वर इत्युक्त्वा मृतानां श्मशानाद् उत्थानस्य प्रमाणं लिलेख।
ܐܠܗܐ ܕܝܢ ܠܐ ܗܘܐ ܕܡܝܬܐ ܐܠܐ ܕܚܝܐ ܟܠܗܘܢ ܓܝܪ ܚܝܝܢ ܐܢܘܢ ܠܗ | 38 |
अतएव य ईश्वरः स मृतानां प्रभु र्न किन्तु जीवतामेव प्रभुः, तन्निकटे सर्व्वे जीवन्तः सन्ति।
ܘܥܢܘ ܐܢܫܝܢ ܡܢ ܤܦܪܐ ܘܐܡܪܝܢ ܠܗ ܡܠܦܢܐ ܫܦܝܪ ܐܡܪ ܐܢܬ | 39 |
इति श्रुत्वा कियन्तोध्यापका ऊचुः, हे उपदेशक भवान् भद्रं प्रत्युक्तवान्।
ܘܠܐ ܬܘܒ ܐܡܪܚܘ ܠܡܫܐܠܘܬܗ ܥܠ ܡܕܡ | 40 |
इतः परं तं किमपि प्रष्टं तेषां प्रगल्भता नाभूत्।
ܘܐܡܪ ܗܘܐ ܠܗܘܢ ܐܝܟܢܐ ܐܡܪܝܢ ܤܦܪܐ ܥܠ ܡܫܝܚܐ ܕܒܪܗ ܗܘ ܕܕܘܝܕ | 41 |
पश्चात् स तान् उवाच, यः ख्रीष्टः स दायूदः सन्तान एतां कथां लोकाः कथं कथयन्ति?
ܘܗܘ ܕܘܝܕ ܐܡܪ ܒܟܬܒܐ ܕܡܙܡܘܪܐ ܕܐܡܪ ܡܪܝܐ ܠܡܪܝ ܬܒ ܠܟ ܡܢ ܝܡܝܢܝ | 42 |
यतः मम प्रभुमिदं वाक्यमवदत् परमेश्वरः। तव शत्रूनहं यावत् पादपीठं करोमि न। तावत् कालं मदीये त्वं दक्षपार्श्व उपाविश।
ܥܕܡܐ ܕܐܤܝܡ ܒܥܠܕܒܒܝܟ ܬܚܝܬ ܪܓܠܝܟ | 43 |
इति कथां दायूद् स्वयं गीतग्रन्थेऽवदत्।
ܐܢ ܗܟܝܠ ܕܘܝܕ ܡܪܝ ܩܪܐ ܠܗ ܐܝܟܢܐ ܒܪܗ ܗܘ | 44 |
अतएव यदि दायूद् तं प्रभुं वदति, तर्हि स कथं तस्य सन्तानो भवति?
ܘܟܕ ܟܠܗ ܥܡܐ ܫܡܥ ܗܘܐ ܐܡܪ ܠܬܠܡܝܕܘܗܝ | 45 |
पश्चाद् यीशुः सर्व्वजनानां कर्णगोचरे शिष्यानुवाच,
ܐܙܕܗܪܘ ܡܢ ܤܦܪܐ ܕܨܒܝܢ ܠܡܗܠܟܘ ܒܐܤܛܠܐ ܘܪܚܡܝܢ ܫܠܡܐ ܒܫܘܩܐ ܘܪܝܫ ܡܘܬܒܐ ܒܟܢܘܫܬܐ ܘܪܝܫ ܤܡܟܐ ܒܐܚܫܡܝܬܐ | 46 |
येऽध्यापका दीर्घपरिच्छदं परिधाय भ्रमन्ति, हट्टापणयो र्नमस्कारे भजनगेहस्य प्रोच्चासने भोजनगृहस्य प्रधानस्थाने च प्रीयन्ते
ܗܢܘܢ ܕܐܟܠܝܢ ܒܬܐ ܕܐܪܡܠܬܐ ܒܥܠܬܐ ܕܡܘܪܟܝܢ ܨܠܘܬܗܘܢ ܗܢܘܢ ܢܩܒܠܘܢ ܕܝܢܐ ܝܬܝܪܐ | 47 |
विधवानां सर्व्वस्वं ग्रसित्वा छलेन दीर्घकालं प्रार्थयन्ते च तेषु सावधाना भवत, तेषामुग्रदण्डो भविष्यति।