< ܝܘܚܢܢ 9 >
ܘܟܕ ܥܒܪ ܚܙܐ ܓܒܪܐ ܤܡܝܐ ܕܡܢ ܟܪܤ ܐܡܗ | 1 |
ततः परं यीशुर्गच्छन् मार्गमध्ये जन्मान्धं नरम् अपश्यत्।
ܘܫܐܠܘܗܝ ܬܠܡܝܕܘܗܝ ܘܐܡܪܝܢ ܪܒܢ ܡܢܘ ܚܛܐ ܗܢܐ ܐܘ ܐܒܗܘܗܝ ܕܟܕ ܤܡܐ ܢܬܝܠܕ | 2 |
ततः शिष्यास्तम् अपृच्छन् हे गुरो नरोयं स्वपापेन वा स्वपित्राः पापेनान्धोऽजायत?
ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܝܫܘܥ ܠܐ ܗܘ ܚܛܐ ܘܠܐ ܐܒܗܘܗܝ ܐܠܐ ܕܢܬܚܙܘܢ ܒܗ ܥܒܕܘܗܝ ܕܐܠܗܐ | 3 |
ततः स प्रत्युदितवान् एतस्य वास्य पित्रोः पापाद् एतादृशोभूद इति नहि किन्त्वनेन यथेश्वरस्य कर्म्म प्रकाश्यते तद्धेतोरेव।
ܠܝ ܘܠܐ ܠܡܥܒܕ ܥܒܕܐ ܕܡܢ ܕܫܕܪܢܝ ܥܕ ܐܝܡܡܐ ܗܘ ܐܬܐ ܠܠܝܐ ܕܐܢܫ ܠܐ ܡܫܟܚ ܠܡܦܠܚ | 4 |
दिने तिष्ठति मत्प्रेरयितुः कर्म्म मया कर्त्तव्यं यदा किमपि कर्म्म न क्रियते तादृशी निशागच्छति।
ܟܡܐ ܕܒܥܠܡܐ ܐܢܐ ܢܘܗܪܗ ܐܢܐ ܕܥܠܡܐ | 5 |
अहं यावत्कालं जगति तिष्ठामि तावत्कालं जगतो ज्योतिःस्वरूपोस्मि।
ܘܟܕ ܐܡܪ ܗܠܝܢ ܪܩ ܥܠ ܐܪܥܐ ܘܓܒܠ ܛܝܢܐ ܡܢ ܪܘܩܗ ܘܛܫ ܥܠ ܥܝܢܘܗܝ ܕܗܘ ܤܡܝܐ | 6 |
इत्युक्त्ता भूमौ निष्ठीवं निक्षिप्य तेन पङ्कं कृतवान्
ܘܐܡܪ ܠܗ ܙܠ ܐܫܝܓ ܒܡܥܡܘܕܝܬܐ ܕܫܝܠܘܚܐ ܘܐܙܠ ܐܫܝܓ ܘܐܬܐ ܟܕ ܚܙܐ | 7 |
पश्चात् तत्पङ्केन तस्यान्धस्य नेत्रे प्रलिप्य तमित्यादिशत् गत्वा शिलोहे ऽर्थात् प्रेरितनाम्नि सरसि स्नाहि। ततोन्धो गत्वा तत्रास्नात् ततः प्रन्नचक्षु र्भूत्वा व्याघुट्यागात्।
ܫܒܒܘܗܝ ܕܝܢ ܘܐܝܠܝܢ ܕܚܙܐ ܗܘܐ ܠܗܘܢ ܡܢ ܩܕܝܡ ܕܚܕܪ ܗܘܐ ܐܡܪܝܢ ܗܘܘ ܠܐ ܗܘܐ ܗܢܘ ܗܘ ܕܝܬܒ ܗܘܐ ܘܚܕܪ | 8 |
अपरञ्च समीपवासिनो लोका ये च तं पूर्व्वमन्धम् अपश्यन् ते बक्त्तुम् आरभन्त योन्धलोको वर्त्मन्युपविश्याभिक्षत स एवायं जनः किं न भवति?
ܐܝܬ ܕܐܡܪܝܢ ܗܘܘ ܕܗܘܝܘ ܘܐܝܬ ܕܐܡܪܝܢ ܗܘܘ ܠܐ ܐܠܐ ܡܕܡܐ ܕܡܐ ܠܗ ܗܘ ܕܝܢ ܐܡܪ ܗܘܐ ܕܐܢܐ ܐܢܐ | 9 |
केचिदवदन् स एव केचिदवोचन् तादृशो भवति किन्तु स स्वयमब्रवीत् स एवाहं भवामि।
ܐܡܪܝܢ ܠܗ ܐܝܟܢܐ ܐܬܦܬܚ ܥܝܢܝܟ | 10 |
अतएव ते ऽपृच्छन् त्वं कथं दृष्टिं पाप्तवान्?
ܥܢܐ ܘܐܡܪ ܠܗܘܢ ܓܒܪܐ ܕܫܡܗ ܝܫܘܥ ܥܒܕ ܛܝܢܐ ܘܛܫ ܠܝ ܥܠ ܥܝܢܝ ܘܐܡܪ ܠܝ ܙܠ ܐܫܝܓ ܒܡܝܐ ܕܫܝܠܘܚܐ ܘܐܙܠܬ ܐܫܝܓܬ ܘܐܬܚܙܝ ܠܝ | 11 |
ततः सोवदद् यीशनामक एको जनो मम नयने पङ्केन प्रलिप्य इत्याज्ञापयत् शिलोहकासारं गत्वा तत्र स्नाहि। ततस्तत्र गत्वा मयि स्नाते दृष्टिमहं लब्धवान्।
ܐܡܪܝܢ ܠܗ ܐܝܟܘ ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܠܐ ܝܕܥ ܐܢܐ | 12 |
तदा ते ऽवदन् स पुमान् कुत्र? तेनोक्त्तं नाहं जानामि।
ܘܐܝܬܝܘܗܝ ܠܗܘ ܕܡܢ ܩܕܝܡ ܤܡܝܐ ܗܘܐ ܠܘܬ ܦܪܝܫܐ | 13 |
अपरं तस्मिन् पूर्व्वान्धे जने फिरूशिनां निकटम् आनीते सति फिरूशिनोपि तमपृच्छन् कथं दृष्टिं प्राप्तोसि?
ܐܝܬܝܗ ܗܘܬ ܕܝܢ ܫܒܬܐ ܟܕ ܥܒܕ ܛܝܢܐ ܝܫܘܥ ܘܦܬܚ ܠܗ ܥܝܢܘܗܝ | 14 |
ततः स कथितवान् स पङ्केन मम नेत्रे ऽलिम्पत् पश्चाद् स्नात्वा दृष्टिमलभे।
ܘܬܘܒ ܫܐܠܘܗܝ ܦܪܝܫܐ ܐܝܟܢܐ ܐܬܚܙܝ ܠܟ ܗܘ ܕܝܢ ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܛܝܢܐ ܤܡ ܥܠ ܥܝܢܝ ܘܐܫܝܓܬ ܘܐܬܚܙܝ ܠܝ | 15 |
किन्तु यीशु र्विश्रामवारे कर्द्दमं कृत्वा तस्य नयने प्रसन्नेऽकरोद् इतिकारणात् कतिपयफिरूशिनोऽवदन्
ܘܐܡܪܝܢ ܗܘܘ ܐܢܫܐ ܡܢ ܦܪܝܫܐ ܗܢܐ ܓܒܪܐ ܠܐ ܗܘܐ ܡܢ ܐܠܗܐ ܗܘ ܕܫܒܬܐ ܠܐ ܢܛܪ ܐܚܪܢܐ ܕܝܢ ܐܡܪܝܢ ܗܘܘ ܐܝܟܢܐ ܡܫܟܚ ܓܒܪܐ ܚܛܝܐ ܗܠܝܢ ܐܬܘܬܐ ܠܡܥܒܕ ܘܦܠܓܘܬܐ ܐܝܬ ܗܘܬ ܒܝܢܬܗܘܢ | 16 |
स पुमान् ईश्वरान्न यतः स विश्रामवारं न मन्यते। ततोन्ये केचित् प्रत्यवदन् पापी पुमान् किम् एतादृशम् आश्चर्य्यं कर्म्म कर्त्तुं शक्नोति?
ܐܡܪܝܢ ܬܘܒ ܠܗܘ ܤܡܝܐ ܐܢܬ ܡܢܐ ܐܡܪ ܐܢܬ ܥܠܘܗܝ ܕܦܬܚ ܠܟ ܥܝܢܝܟ ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܐܢܐ ܐܡܪ ܐܢܐ ܕܢܒܝܐ ܗܘ | 17 |
इत्थं तेषां परस्परं भिन्नवाक्यत्वम् अभवत्। पश्चात् ते पुनरपि तं पूर्व्वान्धं मानुषम् अप्राक्षुः यो जनस्तव चक्षुषी प्रसन्ने कृतवान् तस्मिन् त्वं किं वदसि? स उक्त्तवान् स भविशद्वादी।
ܠܐ ܕܝܢ ܗܝܡܢܘ ܗܘܘ ܥܠܘܗܝ ܝܗܘܕܝܐ ܕܤܡܝܐ ܗܘܐ ܘܚܙܐ ܥܕܡܐ ܕܩܪܘ ܠܐܒܗܘܗܝ ܕܗܘ ܕܚܙܐ | 18 |
स दृष्टिम् आप्तवान् इति यिहूदीयास्तस्य दृष्टिं प्राप्तस्य जनस्य पित्रो र्मुखाद् अश्रुत्वा न प्रत्ययन्।
ܘܫܐܠܘ ܐܢܘܢ ܐܢ ܗܢܘ ܒܪܟܘܢ ܗܘ ܕܐܢܬܘܢ ܐܡܪܝܢ ܐܢܬܘܢ ܕܟܕ ܤܡܐ ܐܬܝܠܕ ܐܝܟܢܐ ܗܫܐ ܚܙܐ | 19 |
अतएव ते तावपृच्छन् युवयो र्यं पुत्रं जन्मान्धं वदथः स किमयं? तर्हीदानीं कथं द्रष्टुं शक्नोति?
ܥܢܘ ܕܝܢ ܐܒܗܘܗܝ ܘܐܡܪܘ ܝܕܥܝܢܢ ܕܗܢܘ ܒܪܢ ܘܕܟܕ ܤܡܐ ܐܬܝܠܕ | 20 |
ततस्तस्य पितरौ प्रत्यवोचताम् अयम् आवयोः पुत्र आ जनेरन्धश्च तदप्यावां जानीवः
ܐܝܟܢܐ ܕܝܢ ܗܫܐ ܚܙܐ ܐܘ ܡܢܘ ܦܬܚ ܠܗ ܥܝܢܘܗܝ ܠܐ ܝܕܥܝܢܢ ܐܦ ܗܘ ܥܠ ܠܗ ܠܫܢܘܗܝ ܠܗ ܫܐܠܘ ܗܘ ܚܠܦ ܢܦܫܗ ܢܡܠܠ | 21 |
किन्त्वधुना कथं दृष्टिं प्राप्तवान् तदावां न् जानीवः कोस्य चक्षुषी प्रसन्ने कृतवान् तदपि न जानीव एष वयःप्राप्त एनं पृच्छत स्वकथां स्वयं वक्ष्यति।
ܗܠܝܢ ܐܡܪܘ ܐܒܗܘܗܝ ܡܛܠ ܕܕܚܠܝܢ ܗܘܘ ܡܢ ܝܗܘܕܝܐ ܦܤܩܘ ܗܘܘ ܓܝܪ ܝܗܘܕܝܐ ܕܐܢ ܐܢܫ ܢܘܕܐ ܒܗ ܕܡܫܝܚܐ ܗܘ ܢܦܩܘܢܝܗܝ ܡܢ ܟܢܘܫܬܐ | 22 |
यिहूदीयानां भयात् तस्य पितरौ वाक्यमिदम् अवदतां यतः कोपि मनुष्यो यदि यीशुम् अभिषिक्तं वदति तर्हि स भजनगृहाद् दूरीकारिष्यते यिहूदीया इति मन्त्रणाम् अकुर्व्वन्
ܡܛܠ ܗܢܐ ܐܡܪܘ ܐܒܗܘܗܝ ܕܥܠ ܠܗ ܠܫܢܘܗܝ ܠܗ ܫܐܠܘ | 23 |
अतस्तस्य पितरौ व्याहरताम् एष वयःप्राप्त एनं पृच्छत।
ܘܩܪܐܘܗܝ ܠܓܒܪܐ ܕܬܪܬܝܢ ܙܒܢܝܢ ܠܗܘ ܕܐܝܬܘܗܝ ܗܘܐ ܤܡܝܐ ܘܐܡܪܝܢ ܠܗ ܫܒܚ ܠܐܠܗܐ ܚܢܢ ܓܝܪ ܝܕܥܝܢܢ ܕܗܢܐ ܓܒܪܐ ܚܛܝܐ ܗܘ | 24 |
तदा ते पुनश्च तं पूर्व्वान्धम् आहूय व्याहरन् ईश्वरस्य गुणान् वद एष मनुष्यः पापीति वयं जानीमः।
ܥܢܐ ܗܘ ܘܐܡܪ ܠܗܘܢ ܐܢ ܚܛܝܐ ܗܘ ܠܐ ܝܕܥ ܐܢܐ ܚܕܐ ܕܝܢ ܝܕܥ ܐܢܐ ܕܤܡܝܐ ܗܘܝܬ ܘܗܫܐ ܗܐ ܚܙܐ ܐܢܐ | 25 |
तदा स उक्त्तवान् स पापी न वेति नाहं जाने पूर्वामन्ध आसमहम् अधुना पश्यामीति मात्रं जानामि।
ܐܡܪܝܢ ܠܗ ܬܘܒ ܡܢܐ ܥܒܕ ܠܟ ܐܝܟܢܐ ܦܬܚ ܠܟ ܥܝܢܝܟ | 26 |
ते पुनरपृच्छन् स त्वां प्रति किमकरोत्? कथं नेत्रे प्रसन्ने ऽकरोत्?
ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܐܡܪܬ ܠܟܘܢ ܘܠܐ ܫܡܥܬܘܢ ܡܢܐ ܬܘܒ ܨܒܝܢ ܐܢܬܘܢ ܠܡܫܡܥ ܠܡܐ ܐܦ ܐܢܬܘܢ ܬܠܡܝܕܐ ܨܒܝܢ ܐܢܬܘܢ ܠܡܗܘܐ ܠܗ | 27 |
ततः सोवादीद् एककृत्वोकथयं यूयं न शृणुथ तर्हि कुतः पुनः श्रोतुम् इच्छथ? यूयमपि किं तस्य शिष्या भवितुम् इच्छथ?
ܗܢܘܢ ܕܝܢ ܨܚܝܘܗܝ ܘܐܡܪܝܢ ܠܗ ܐܢܬ ܗܘ ܬܠܡܝܕܗ ܕܗܘ ܚܢܢ ܓܝܪ ܬܠܡܝܕܐ ܚܢܢ ܕܡܘܫܐ | 28 |
तदा ते तं तिरस्कृत्य व्याहरन् त्वं तस्य शिष्यो वयं मूसाः शिष्याः।
ܘܝܕܥܝܢܢ ܕܥܡ ܡܘܫܐ ܐܠܗܐ ܡܠܠ ܠܗܢܐ ܕܝܢ ܠܐ ܝܕܥܝܢܢ ܡܢ ܐܝܡܟܐ ܗܘ | 29 |
मूसावक्त्रेणेश्वरो जगाद तज्जानीमः किन्त्वेष कुत्रत्यलोक इति न जानीमः।
ܥܢܐ ܗܘ ܓܒܪܐ ܘܐܡܪ ܠܗܘܢ ܒܗܕܐ ܗܘ ܗܟܝܠ ܠܡܬܕܡܪܘ ܕܐܢܬܘܢ ܠܐ ܝܕܥܝܢ ܐܢܬܘܢ ܡܢ ܐܝܡܟܐ ܗܘ ܘܥܝܢܝ ܕܝܠܝ ܦܬܚ | 30 |
सोवदद् एष मम लोचने प्रसन्ने ऽकरोत् तथापि कुत्रत्यलोक इति यूयं न जानीथ एतद् आश्चर्य्यं भवति।
ܝܕܥܝܢ ܚܢܢ ܕܝܢ ܕܐܠܗܐ ܒܩܠܐ ܕܚܛܝܐ ܠܐ ܫܡܥ ܐܠܐ ܠܡܢ ܕܕܚܠ ܡܢܗ ܘܥܒܕ ܨܒܝܢܗ ܠܗܘ ܗܘ ܫܡܥ | 31 |
ईश्वरः पापिनां कथां न शृणोति किन्तु यो जनस्तस्मिन् भक्तिं कृत्वा तदिष्टक्रियां करोति तस्यैव कथां शृणोति एतद् वयं जानीमः।
ܡܢ ܥܠܡ ܠܐ ܐܫܬܡܥܬ ܕܦܬܚ ܐܢܫ ܥܝܢܐ ܕܤܡܝܐ ܕܐܬܝܠܕ (aiōn ) | 32 |
कोपि मनुष्यो जन्मान्धाय चक्षुषी अददात् जगदारम्भाद् एतादृशीं कथां कोपि कदापि नाशृणोत्। (aiōn )
ܐܠܘ ܠܐ ܡܢ ܐܠܗܐ ܗܘܐ ܗܢܐ ܠܐ ܡܫܟܚ ܗܘܐ ܗܕܐ ܠܡܥܒܕ | 33 |
अस्माद् एष मनुष्यो यदीश्वरान्नाजायत तर्हि किञ्चिदपीदृशं कर्म्म कर्त्तुं नाशक्नोत्।
ܥܢܘ ܘܐܡܪܝܢ ܠܗ ܐܢܬ ܟܠܟ ܒܚܛܗܐ ܐܬܝܠܕܬ ܘܐܢܬ ܡܠܦ ܐܢܬ ܠܢ ܘܐܦܩܘܗܝ ܠܒܪ | 34 |
ते व्याहरन् त्वं पापाद् अजायथाः किमस्मान् त्वं शिक्षयसि? पश्चात्ते तं बहिरकुर्व्वन्।
ܘܫܡܥ ܝܫܘܥ ܕܐܦܩܘܗܝ ܠܒܪ ܘܐܫܟܚܗ ܘܐܡܪ ܠܗ ܐܢܬ ܡܗܝܡܢ ܐܢܬ ܒܒܪܗ ܕܐܠܗܐ | 35 |
तदनन्तरं यिहूदीयैः स बहिरक्रियत यीशुरिति वार्त्तां श्रुत्वा तं साक्षात् प्राप्य पृष्टवान् ईश्वरस्य पुत्रे त्वं विश्वसिषि?
ܥܢܐ ܗܘ ܕܐܬܐܤܝ ܘܐܡܪ ܡܢܘ ܡܪܝ ܕܐܗܝܡܢ ܒܗ | 36 |
तदा स प्रत्यवोचत् हे प्रभो स को यत् तस्मिन्नहं विश्वसिमि?
ܐܡܪ ܠܗ ܝܫܘܥ ܚܙܝܬܝܗܝ ܘܗܘ ܕܡܡܠܠ ܥܡܟ ܗܘܝܘ | 37 |
ततो यीशुः कथितवान् त्वं तं दृष्टवान् त्वया साकं यः कथं कथयति सएव सः।
ܗܘ ܕܝܢ ܐܡܪ ܡܗܝܡܢ ܐܢܐ ܡܪܝ ܘܢܦܠ ܤܓܕ ܠܗ | 38 |
तदा हे प्रभो विश्वसिमीत्युक्त्वा स तं प्रणामत्।
ܘܐܡܪ ܝܫܘܥ ܠܕܝܢܗ ܕܥܠܡܐ ܗܢܐ ܐܬܝܬ ܕܐܝܠܝܢ ܕܠܐ ܚܙܝܢ ܢܚܙܘܢ ܘܐܝܠܝܢ ܕܚܙܝܢ ܢܤܡܘܢ | 39 |
पश्चाद् यीशुः कथितवान् नयनहीना नयनानि प्राप्नुवन्ति नयनवन्तश्चान्धा भवन्तीत्यभिप्रायेण जगदाहम् आगच्छम्।
ܘܫܡܥܘ ܡܢ ܦܪܝܫܐ ܐܝܠܝܢ ܕܥܡܗ ܗܘܘ ܗܠܝܢ ܘܐܡܪܘ ܠܗ ܠܡܐ ܐܦ ܚܢܢ ܤܡܝܐ ܚܢܢ | 40 |
एतत् श्रुत्वा निकटस्थाः कतिपयाः फिरूशिनो व्याहरन् वयमपि किमन्धाः?
ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܝܫܘܥ ܐܠܘ ܤܡܝܐ ܗܘܝܬܘܢ ܠܝܬ ܗܘܬ ܠܟܘܢ ܚܛܝܬܐ ܗܫܐ ܕܝܢ ܐܡܪܝܢ ܐܢܬܘܢ ܕܚܙܝܢܢ ܡܛܠ ܗܢܐ ܚܛܝܬܟܘܢ ܩܝܡܐ ܗܝ | 41 |
तदा यीशुरवादीद् यद्यन्धा अभवत तर्हि पापानि नातिष्ठन् किन्तु पश्यामीति वाक्यवदनाद् युष्माकं पापानि तिष्ठन्ति।