< ܝܘܚܢܢ 18 >
ܗܠܝܢ ܐܡܪ ܝܫܘܥ ܘܢܦܩ ܥܡ ܬܠܡܝܕܘܗܝ ܠܥܒܪܐ ܕܪܓܠܬܐ ܕܩܕܪܘܢ ܐܬܪ ܕܐܝܬ ܗܘܬ ܓܢܬܐ ܐܝܟܐ ܕܥܠ ܗܘ ܘܬܠܡܝܕܘܗܝ | 1 |
ताः कथाः कथयित्वा यीशुः शिष्यानादाय किद्रोन्नामकं स्रोत उत्तीर्य्य शिष्यैः सह तत्रत्योद्यानं प्राविशत्।
ܝܕܥ ܗܘܐ ܕܝܢ ܐܦ ܝܗܘܕܐ ܡܫܠܡܢܐ ܠܕܘܟܬܐ ܗܝ ܡܛܠ ܕܤܓܝ ܙܒܢܐ ܟܢܫ ܗܘܐ ܬܡܢ ܝܫܘܥ ܥܡ ܬܠܡܝܕܘܗܝ | 2 |
किन्तु विश्वासघातियिहूदास्तत् स्थानं परिचीयते यतो यीशुः शिष्यैः सार्द्धं कदाचित् तत् स्थानम् अगच्छत्।
ܗܘ ܗܟܝܠ ܝܗܘܕܐ ܕܒܪ ܐܤܦܝܪ ܘܡܢ ܠܘܬ ܪܒܝ ܟܗܢܐ ܘܦܪܝܫܐ ܕܒܪ ܕܚܫܐ ܘܐܬܐ ܠܬܡܢ ܥܡ ܢܦܛܪܐ ܘܠܡܦܝܕܐ ܘܙܝܢܐ | 3 |
तदा स यिहूदाः सैन्यगणं प्रधानयाजकानां फिरूशिनाञ्च पदातिगणञ्च गृहीत्वा प्रदीपान् उल्कान् अस्त्राणि चादाय तस्मिन् स्थान उपस्थितवान्।
ܝܫܘܥ ܕܝܢ ܕܝܕܥ ܗܘܐ ܟܠ ܡܕܡ ܕܐܬܐ ܥܠܘܗܝ ܢܦܩ ܘܐܡܪ ܠܗܘܢ ܠܡܢ ܒܥܝܢ ܐܢܬܘܢ | 4 |
स्वं प्रति यद् घटिष्यते तज् ज्ञात्वा यीशुरग्रेसरः सन् तानपृच्छत् कं गवेषयथ?
ܐܡܪܝܢ ܠܗ ܠܝܫܘܥ ܢܨܪܝܐ ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܝܫܘܥ ܐܢܐ ܐܢܐ ܩܐܡ ܗܘܐ ܕܝܢ ܐܦ ܝܗܘܕܐ ܡܫܠܡܢܐ ܥܡܗܘܢ | 5 |
ते प्रत्यवदन्, नासरतीयं यीशुं; ततो यीशुरवादीद् अहमेव सः; तैः सह विश्वासघाती यिहूदाश्चातिष्ठत्।
ܘܟܕ ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܝܫܘܥ ܕܐܢܐ ܐܢܐ ܐܙܠܘ ܠܒܤܬܪܗܘܢ ܘܢܦܠܘ ܥܠ ܐܪܥܐ | 6 |
तदाहमेव स तस्यैतां कथां श्रुत्वैव ते पश्चादेत्य भूमौ पतिताः।
ܬܘܒ ܫܐܠ ܐܢܘܢ ܝܫܘܥ ܠܡܢ ܒܥܝܢ ܐܢܬܘܢ ܗܢܘܢ ܕܝܢ ܐܡܪܘ ܠܝܫܘܥ ܢܨܪܝܐ | 7 |
ततो यीशुः पुनरपि पृष्ठवान् कं गवेषयथ? ततस्ते प्रत्यवदन् नासरतीयं यीशुं।
ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܝܫܘܥ ܐܡܪܬ ܠܟܘܢ ܕܐܢܐ ܐܢܐ ܘܐܢ ܠܝ ܒܥܝܢ ܐܢܬܘܢ ܫܒܘܩܘ ܠܗܠܝܢ ܐܙܠܝܢ | 8 |
तदा यीशुः प्रत्युदितवान् अहमेव स इमां कथामचकथम्; यदि मामन्विच्छथ तर्हीमान् गन्तुं मा वारयत।
ܕܬܫܠܡ ܡܠܬܐ ܕܐܡܪ ܕܐܝܠܝܢ ܕܝܗܒܬ ܠܝ ܠܐ ܐܘܒܕܬ ܡܢܗܘܢ ܐܦܠܐ ܚܕ | 9 |
इत्थं भूते मह्यं याल्लोकान् अददास्तेषाम् एकमपि नाहारयम् इमां यां कथां स स्वयमकथयत् सा कथा सफला जाता।
ܫܡܥܘܢ ܕܝܢ ܟܐܦܐ ܐܝܬ ܗܘܐ ܥܠܘܗܝ ܤܦܤܪܐ ܘܫܡܛܗ ܘܡܚܝܗܝ ܠܥܒܕܗ ܕܪܒ ܟܗܢܐ ܘܫܩܠܗ ܐܕܢܗ ܕܝܡܝܢܐ ܫܡܗ ܕܝܢ ܕܥܒܕܐ ܡܠܟ | 10 |
तदा शिमोन्पितरस्य निकटे खङ्गल्स्थितेः स तं निष्कोषं कृत्वा महायाजकस्य माल्खनामानं दासम् आहत्य तस्य दक्षिणकर्णं छिन्नवान्।
ܘܐܡܪ ܝܫܘܥ ܠܟܐܦܐ ܤܝܡ ܤܦܤܪܐ ܒܚܠܬܗ ܟܤܐ ܕܝܗܒ ܠܝ ܐܒܝ ܠܐ ܐܫܬܝܘܗܝ | 11 |
ततो यीशुः पितरम् अवदत्, खङ्गं कोषे स्थापय मम पिता मह्यं पातुं यं कंसम् अददात् तेनाहं किं न पास्यामि?
ܗܝܕܝܢ ܐܤܦܝܪ ܘܟܠܝܪܟܐ ܘܕܚܫܐ ܕܝܗܘܕܝܐ ܐܚܕܘܗܝ ܠܝܫܘܥ ܘܐܤܪܘܗܝ | 12 |
तदा सैन्यगणः सेनापति र्यिहूदीयानां पदातयश्च यीशुं घृत्वा बद्ध्वा हानन्नाम्नः कियफाः श्वशुरस्य समीपं प्रथमम् अनयन्।
ܘܐܝܬܝܘܗܝ ܠܘܬ ܚܢܢ ܠܘܩܕܡ ܡܛܠ ܕܚܡܘܗܝ ܗܘܐ ܕܩܝܦܐ ܗܘ ܕܐܝܬܘܗܝ ܗܘܐ ܪܒ ܟܗܢܐ ܕܫܢܬܐ ܗܝ | 13 |
स कियफास्तस्मिन् वत्सरे महायाजत्वपदे नियुक्तः
ܐܝܬܘܗܝ ܗܘܐ ܕܝܢ ܩܝܦܐ ܗܘ ܕܡܠܟ ܠܝܗܘܕܝܐ ܕܦܩܚ ܕܚܕ ܓܒܪܐ ܢܡܘܬ ܚܠܦ ܥܡܐ | 14 |
सन् साधारणलोकानां मङ्गलार्थम् एकजनस्य मरणमुचितम् इति यिहूदीयैः सार्द्धम् अमन्त्रयत्।
ܫܡܥܘܢ ܕܝܢ ܟܐܦܐ ܘܚܕ ܡܢ ܬܠܡܝܕܐ ܐܚܪܢܐ ܐܬܝܢ ܗܘܘ ܒܬܪܗ ܕܝܫܘܥ ܠܗܘ ܕܝܢ ܬܠܡܝܕܐ ܝܕܥ ܗܘܐ ܠܗ ܪܒ ܟܗܢܐ ܘܥܠ ܥܡ ܝܫܘܥ ܠܕܪܬܐ | 15 |
तदा शिमोन्पितरोऽन्यैकशिष्यश्च यीशोः पश्चाद् अगच्छतां तस्यान्यशिष्यस्य महायाजकेन परिचितत्वात् स यीशुना सह महायाजकस्याट्टालिकां प्राविशत्।
ܫܡܥܘܢ ܕܝܢ ܩܐܡ ܗܘܐ ܠܒܪ ܠܘܬ ܬܪܥܐ ܘܢܦܩ ܗܘ ܬܠܡܝܕܐ ܐܚܪܢܐ ܕܝܕܥ ܗܘܐ ܠܗ ܪܒ ܟܗܢܐ ܘܐܡܪ ܠܢܛܪܬ ܬܪܥܐ ܘܐܥܠܗ ܠܫܡܥܘܢ | 16 |
किन्तु पितरो बहिर्द्वारस्य समीपेऽतिष्ठद् अतएव महायाजकेन परिचितः स शिष्यः पुनर्बहिर्गत्वा दौवायिकायै कथयित्वा पितरम् अभ्यन्तरम् आनयत्।
ܐܡܪܬ ܕܝܢ ܥܠܝܡܬܐ ܢܛܪܬ ܬܪܥܐ ܠܫܡܥܘܢ ܠܡܐ ܐܦ ܐܢܬ ܡܢ ܬܠܡܝܕܘܗܝ ܐܢܬ ܕܗܢܐ ܓܒܪܐ ܐܡܪ ܠܗ ܠܐ | 17 |
तदा स द्वाररक्षिका पितरम् अवदत् त्वं किं न तस्य मानवस्य शिष्यः? ततः सोवदद् अहं न भवामि।
ܘܩܝܡܝܢ ܗܘܘ ܥܒܕܐ ܘܕܚܫܐ ܘܤܝܡܝܢ ܗܘܘ ܢܘܪܐ ܕܢܫܚܢܘܢ ܡܛܠ ܕܩܪܝܫ ܗܘܐ ܩܐܡ ܗܘܐ ܕܝܢ ܐܦ ܫܡܥܘܢ ܥܡܗܘܢ ܘܫܚܢ | 18 |
ततः परं यत्स्थाने दासाः पदातयश्च शीतहेतोरङ्गारै र्वह्निं प्रज्वाल्य तापं सेवितवन्तस्तत्स्थाने पितरस्तिष्ठन् तैः सह वह्नितापं सेवितुम् आरभत।
ܪܒ ܟܗܢܐ ܕܝܢ ܫܐܠܗ ܠܝܫܘܥ ܥܠ ܬܠܡܝܕܘܗܝ ܘܥܠ ܝܘܠܦܢܗ | 19 |
तदा शिष्येषूपदेशे च महायाजकेन यीशुः पृष्टः
ܘܐܡܪ ܠܗ ܝܫܘܥ ܐܢܐ ܥܝܢ ܒܓܠܐ ܡܠܠܬ ܥܡ ܥܡܐ ܘܒܟܠܙܒܢ ܐܠܦܬ ܒܟܢܘܫܬܐ ܘܒܗܝܟܠܐ ܐܝܟܐ ܕܟܠܗܘܢ ܝܗܘܕܝܐ ܡܬܟܢܫܝܢ ܘܡܕܡ ܒܛܘܫܝܐ ܠܐ ܡܠܠܬ | 20 |
सन् प्रत्युक्तवान् सर्व्वलोकानां समक्षं कथामकथयं गुप्तं कामपि कथां न कथयित्वा यत् स्थानं यिहूदीयाः सततं गच्छन्ति तत्र भजनगेहे मन्दिरे चाशिक्षयं।
ܡܢܐ ܡܫܐܠ ܐܢܬ ܠܝ ܫܐܠ ܠܗܢܘܢ ܕܫܡܥܘ ܡܢܐ ܡܠܠܬ ܥܡܗܘܢ ܗܐ ܗܢܘܢ ܝܕܥܝܢ ܟܠ ܡܕܡ ܕܐܡܪܬ | 21 |
मत्तः कुतः पृच्छसि? ये जना मदुपदेशम् अशृण्वन् तानेव पृच्छ यद्यद् अवदं ते तत् जानिन्त।
ܘܟܕ ܗܠܝܢ ܐܡܪ ܚܕ ܡܢ ܕܚܫܐ ܕܩܐܡ ܗܘܐ ܡܚܝܗܝ ܥܠ ܦܟܗ ܠܝܫܘܥ ܘܐܡܪ ܠܗ ܗܟܢܐ ܝܗܒ ܐܢܬ ܦܬܓܡܐ ܠܪܒ ܟܗܢܐ | 22 |
तदेत्थं प्रत्युदितत्वात् निकटस्थपदाति र्यीशुं चपेटेनाहत्य व्याहरत् महायाजकम् एवं प्रतिवदसि?
ܥܢܐ ܝܫܘܥ ܘܐܡܪ ܠܗ ܐܢ ܒܝܫܐܝܬ ܡܠܠܬ ܐܤܗܕ ܥܠ ܒܝܫܬܐ ܘܐܢ ܕܝܢ ܫܦܝܪ ܠܡܢܐ ܡܚܝܬܢܝ | 23 |
ततो यीशुः प्रतिगदितवान् यद्ययथार्थम् अचकथं तर्हि तस्यायथार्थस्य प्रमाणं देहि, किन्तु यदि यथार्थं तर्हि कुतो हेतो र्माम् अताडयः?
ܚܢܢ ܕܝܢ ܫܕܪ ܠܝܫܘܥ ܟܕ ܐܤܝܪ ܠܘܬ ܩܝܦܐ ܪܒ ܟܗܢܐ | 24 |
पूर्व्वं हानन् सबन्धनं तं कियफामहायाजकस्य समीपं प्रैषयत्।
ܘܫܡܥܘܢ ܟܐܦܐ ܩܐܡ ܗܘܐ ܘܫܚܢ ܘܐܡܪܝܢ ܠܗ ܠܡܐ ܐܦ ܐܢܬ ܚܕ ܡܢ ܬܠܡܝܕܘܗܝ ܐܢܬ ܘܗܘ ܟܦܪ ܘܐܡܪ ܠܐ ܗܘܝܬ | 25 |
शिमोन्पितरस्तिष्ठन् वह्नितापं सेवते, एतस्मिन् समये कियन्तस्तम् अपृच्छन् त्वं किम् एतस्य जनस्य शिष्यो न? ततः सोपह्नुत्याब्रवीद् अहं न भवामि।
ܐܡܪ ܠܗ ܚܕ ܡܢ ܥܒܕܐ ܕܪܒ ܟܗܢܐ ܐܚܝܢܗ ܕܗܘ ܕܦܤܩ ܗܘܐ ܫܡܥܘܢ ܐܕܢܗ ܠܐ ܐܢܐ ܚܙܝܬܟ ܥܡܗ ܒܓܢܬܐ | 26 |
तदा महायाजकस्य यस्य दासस्य पितरः कर्णमच्छिनत् तस्य कुटुम्बः प्रत्युदितवान् उद्याने तेन सह तिष्ठन्तं त्वां किं नापश्यं?
ܘܬܘܒ ܟܦܪ ܫܡܥܘܢ ܘܒܗ ܒܫܥܬܐ ܩܪܐ ܬܪܢܓܠܐ | 27 |
किन्तु पितरः पुनरपह्नुत्य कथितवान्; तदानीं कुक्कुटोऽरौत्।
ܐܝܬܝܘܗܝ ܕܝܢ ܠܝܫܘܥ ܡܢ ܠܘܬ ܩܝܦܐ ܠܦܪܛܘܪܝܢ ܘܐܝܬܘܗܝ ܗܘܐ ܨܦܪܐ ܘܗܢܘܢ ܠܐ ܥܠܘ ܠܦܪܛܘܪܝܢ ܕܠܐ ܢܬܛܘܫܘܢ ܥܕ ܐܟܠܝܢ ܦܨܚܐ | 28 |
तदनन्तरं प्रत्यूषे ते कियफागृहाद् अधिपते र्गृहं यीशुम् अनयन् किन्तु यस्मिन् अशुचित्वे जाते तै र्निस्तारोत्सवे न भोक्तव्यं, तस्य भयाद् यिहूदीयास्तद्गृहं नाविशन्।
ܢܦܩ ܕܝܢ ܦܝܠܛܘܤ ܠܒܪ ܠܘܬܗܘܢ ܘܐܡܪ ܠܗܘܢ ܡܢܐ ܡܐܟܠ ܩܪܨܐ ܐܝܬ ܠܟܘܢ ܥܠ ܓܒܪܐ ܗܢܐ | 29 |
अपरं पीलातो बहिरागत्य तान् पृष्ठवान् एतस्य मनुष्यस्य कं दोषं वदथ?
ܥܢܘ ܘܐܡܪܝܢ ܠܗ ܐܠܘ ܠܐ ܥܒܕ ܒܝܫܬܐ ܗܘܐ ܐܦܠܐ ܠܟ ܡܫܠܡܝܢ ܗܘܝܢ ܠܗ | 30 |
तदा ते पेत्यवदन् दुष्कर्म्मकारिणि न सति भवतः समीपे नैनं समार्पयिष्यामः।
ܐܡܪ ܠܗܘܢ ܦܝܠܛܘܤ ܕܘܒܪܘܗܝ ܐܢܬܘܢ ܘܕܘܢܘܗܝ ܐܝܟ ܢܡܘܤܟܘܢ ܐܡܪܝܢ ܠܗ ܝܗܘܕܝܐ ܠܐ ܫܠܝܛ ܠܢ ܠܡܩܛܠ ܠܐܢܫ | 31 |
ततः पीलातोऽवदद् यूयमेनं गृहीत्वा स्वेषां व्यवस्थया विचारयत। तदा यिहूदीयाः प्रत्यवदन् कस्यापि मनुष्यस्य प्राणदण्डं कर्त्तुं नास्माकम् अधिकारोऽस्ति।
ܕܬܫܠܡ ܡܠܬܐ ܕܐܡܪ ܝܫܘܥ ܟܕ ܡܘܕܥ ܒܐܝܢܐ ܡܘܬܐ ܥܬܝܕ ܕܢܡܘܬ | 32 |
एवं सति यीशुः स्वस्य मृत्यौ यां कथां कथितवान् सा सफलाभवत्।
ܥܠ ܕܝܢ ܦܝܠܛܘܤ ܠܦܪܛܘܪܝܢ ܘܩܪܐ ܠܝܫܘܥ ܘܐܡܪ ܠܗ ܐܢܬ ܗܘ ܡܠܟܗܘܢ ܕܝܗܘܕܝܐ | 33 |
तदनन्तरं पीलातः पुनरपि तद् राजगृहं गत्वा यीशुमाहूय पृष्टवान् त्वं किं यिहूदीयानां राजा?
ܐܡܪ ܠܗ ܝܫܘܥ ܡܢ ܢܦܫܟ ܐܡܪܬ ܗܕܐ ܐܘ ܐܚܪܢܐ ܐܡܪܘ ܠܟ ܥܠܝ | 34 |
यीशुः प्रत्यवदत् त्वम् एतां कथां स्वतः कथयसि किमन्यः कश्चिन् मयि कथितवान्?
ܐܡܪ ܠܗ ܦܝܠܛܘܤ ܠܡܐ ܐܢܐ ܝܗܘܕܝܐ ܐܢܐ ܒܢܝ ܥܡܟ ܗܘ ܘܪܒܝ ܟܗܢܐ ܐܫܠܡܘܟ ܠܝ ܡܢܐ ܥܒܕܬ | 35 |
पीलातोऽवदद् अहं किं यिहूदीयः? तव स्वदेशीया विशेषतः प्रधानयाजका मम निकटे त्वां समार्पयन, त्वं किं कृतवान्?
ܐܡܪ ܠܗ ܝܫܘܥ ܡܠܟܘܬܝ ܕܝܠܝ ܠܐ ܗܘܬ ܡܢ ܗܢܐ ܥܠܡܐ ܐܠܘ ܡܢ ܥܠܡܐ ܗܘܬ ܗܢܐ ܡܠܟܘܬܝ ܡܬܟܬܫܝܢ ܗܘܘ ܡܫܡܫܢܝ ܕܠܐ ܐܫܬܠܡ ܠܝܗܘܕܝܐ ܗܫܐ ܕܝܢ ܡܠܟܘܬܝ ܕܝܠܝ ܠܐ ܗܘܬ ܡܟܐ | 36 |
यीशुः प्रत्यवदत् मम राज्यम् एतज्जगत्सम्बन्धीयं न भवति यदि मम राज्यं जगत्सम्बन्धीयम् अभविष्यत् तर्हि यिहूदीयानां हस्तेषु यथा समर्पितो नाभवं तदर्थं मम सेवका अयोत्स्यन् किन्तु मम राज्यम् ऐहिकं न।
ܐܡܪ ܠܗ ܦܝܠܛܘܤ ܡܕܝܢ ܡܠܟܐ ܐܢܬ ܐܡܪ ܠܗ ܝܫܘܥ ܐܢܬ ܐܡܪܬ ܕܡܠܟܐ ܐܢܐ ܐܢܐ ܠܗܕܐ ܝܠܝܕ ܐܢܐ ܘܠܗܕܐ ܐܬܝܬ ܠܥܠܡܐ ܕܐܤܗܕ ܥܠ ܫܪܪܐ ܟܠ ܡܢ ܕܐܝܬܘܗܝ ܡܢ ܫܪܪܐ ܫܡܥ ܩܠܝ | 37 |
तदा पीलातः कथितवान्, तर्हि त्वं राजा भवसि? यीशुः प्रत्युक्तवान् त्वं सत्यं कथयसि, राजाहं भवामि; सत्यतायां साक्ष्यं दातुं जनिं गृहीत्वा जगत्यस्मिन् अवतीर्णवान्, तस्मात् सत्यधर्म्मपक्षपातिनो मम कथां शृण्वन्ति।
ܐܡܪ ܠܗ ܦܝܠܛܘܤ ܡܢܘ ܫܪܪܐ ܘܟܕ ܐܡܪ ܗܕܐ ܢܦܩ ܠܗ ܬܘܒ ܠܘܬ ܝܗܘܕܝܐ ܘܐܡܪ ܠܗܘܢ ܐܢܐ ܐܦܠܐ ܚܕܐ ܥܠܬܐ ܡܫܟܚ ܐܢܐ ܒܗ | 38 |
तदा सत्यं किं? एतां कथां पष्ट्वा पीलातः पुनरपि बहिर्गत्वा यिहूदीयान् अभाषत, अहं तस्य कमप्यपराधं न प्राप्नोमि।
ܥܝܕܐ ܕܝܢ ܐܝܬ ܠܟܘܢ ܕܚܕ ܐܫܪܐ ܠܟܘܢ ܒܦܨܚܐ ܨܒܝܢ ܐܢܬܘܢ ܗܟܝܠ ܐܫܪܐ ܠܟܘܢ ܠܗܢܐ ܡܠܟܐ ܕܝܗܘܕܝܐ | 39 |
निस्तारोत्सवसमये युष्माभिरभिरुचित एको जनो मया मोचयितव्य एषा युष्माकं रीतिरस्ति, अतएव युष्माकं निकटे यिहूदीयानां राजानं किं मोचयामि, युष्माकम् इच्छा का?
ܘܩܥܘ ܟܠܗܘܢ ܘܐܡܪܝܢ ܠܐ ܠܗܢܐ ܐܠܐ ܠܒܪ ܐܒܐ ܐܝܬܘܗܝ ܗܘܐ ܕܝܢ ܗܢܐ ܒܪ ܐܒܐ ܓܝܤܐ | 40 |
तदा ते सर्व्वे रुवन्तो व्याहरन् एनं मानुषं नहि बरब्बां मोचय। किन्तु स बरब्बा दस्युरासीत्।