< المَزامِير 84 >
لِقَائِدِ الْمُنْشِدِينَ عَلَى الْجَتِّيَّةِ مَزْمُورٌ لِبَنِي قُورَحَ مَا أَحْلَى مَسَاكِنَكَ يَا رَبَّ الْجُنُودِ! | ١ 1 |
ऐ लश्करों के ख़ुदावन्द! तेरे घर क्या ही दिलकश हैं!
تَتُوقُ بَلْ تَحِنُّ نَفْسِي إِلَى دِيَارِ الرَّبِّ. قَلْبِي وَجِسْمِي يُرَنِّمَانِ بِفَرَحٍ لِلإِلَهِ الْحَيِّ. | ٢ 2 |
मेरी जान ख़ुदावन्द की बारगाहों की मुश्ताक़ है, बल्कि गुदाज़ हो चली, मेरा दिल और मेरा जिस्म ज़िन्दा ख़ुदा के लिए ख़ुशी से ललकारते हैं।
الْعُصْفُورُ أَيْضاً وَجَدَ لَهُ وَكْراً، وَالْيَمَامَةُ عَثَرَتْ لِنَفْسِهَا عَلَى عُشٍّ تَضَعُ فِيهِ فِرَاخَهَا، بِجِوَارِ مَذَابِحِكَ يَا رَبَّ الْجُنُودِ، يَا مَلِكِي وَإِلَهِي. | ٣ 3 |
ऐ लश्करों के ख़ुदावन्द! ऐ मेरे बादशाहऔर मेरे ख़ुदा! तेरे मज़बहों के पास गौरया ने अपना आशियाना, और अबाबील ने अपने लिए घोंसला बना लिया, जहाँ वह अपने बच्चों को रख्खे।
طُوبَى لِمَنْ يَسْكُنُونَ فِي بَيْتِكَ، فَإِنَّهُمْ يُسَبِّحُونَكَ دَائِماً. | ٤ 4 |
मुबारक हैं वह जो तेरे घर में रहते हैं, वह हमेशा तेरी ता'रीफ़ करेंगे। मिलाह
طُوبَى لأُنَاسٍ أَنْتَ قُوَّتُهُمْ. الْمُتَلَهِّفُونَ لاتِّبَاعِ طُرُقِكَ الْمُفْضِيَةِ إِلَى بَيْتِكَ المُقَدَّسِ. | ٥ 5 |
मुबारक है वह आदमी, जिसकी ताक़त तुझ से है, जिसके दिल में सिय्यून की शाह राहें हैं।
وَإِذْ يَعْبُرُونَ فِي وَادِي الْبَكَا الْجَافِّ، يَجْعَلُونَهُ يَنَابِيعَ مَاءٍ، وَيَغْمُرُهُمُ الْمَطَرُ الْخَرِيفِيُّ بِالْبَرَكَاتِ. | ٦ 6 |
वह वादी — ए — बुका से गुज़र कर उसे चश्मों की जगह बना लेते हैं, बल्कि पहली बारिश उसे बरकतों से मा'मूर कर देती है।
يَنْمُونَ مِنْ قُوَّةٍ إِلَى قُوَّةٍ، إِذْ يَمْثُلُ كُلُّ وَاحِدٍ أَمَامَ اللهِ فِي صِهْيَوْنَ. | ٧ 7 |
वह ताक़त पर ताक़त पाते हैं; उनमें से हर एक सिय्यून में ख़ुदा के सामने हाज़िर होता है।
يَا رَبُّ إِلَهَ الْجُنُودِ اسْمَعْ صَلاتِي، وَأَصْغِ إِلَيَّ يَا إِلَهَ يَعْقُوبَ. | ٨ 8 |
ऐ ख़ुदावन्द, लश्करों के ख़ुदा, मेरी दुआ सुन ऐ या'क़ूब के ख़ुदा! कान लगा! (सिलाह)
يَا اللهُ مِجَنَّنَا، انْظُرْ بِعَيْنِ الرَّحْمَةِ إِلَى مَنْ مَسَحْتَهُ مَلِكاً. | ٩ 9 |
ऐ ख़ुदा! ऐ हमारी सिपर! देख; और अपने मम्सूह के चेहरे पर नजर कर।
إِنَّ يَوْماً وَاحِداً أَقْضِيهِ دَاخِلَ دِيَارِكَ خَيْرٌ مِنْ أَلْفِ يَوْمٍ خَارِجَهَا. اخْتَرْتُ أَنْ أَقِفَ عَلَى الْعَتَبَةِ فِي بَيْتِ إِلَهِي عَلَى السَّكَنِ فِي خِيَامِ الأَشْرَارِ. | ١٠ 10 |
क्यूँकि तेरी बारगाहों में एक दिन हज़ार से बेहतर है। मैं अपने ख़ुदा के घर का दरबान होना, शरारत के खे़मों में बसने से ज़्यादा पसंद करूँगा।
لأَنَّ الرَّبَّ الإِلَهَ شَمْسٌ وَتُرْسٌ. الرَّبُّ يُعْطِي نِعْمَةً وَمَجْداً؛ لَا يَمْنَعُ أَيَّ خَيْرٍ عَنِ السَّالِكِينَ بِالاسْتِقَامَةِ. | ١١ 11 |
क्यूँकि ख़ुदावन्द ख़ुदा, आफ़ताब और ढाल है; ख़ुदावन्द फ़ज़ल और जलाल बख़्शेगा वह रास्तरू से कोई ने'मत बाज़ न रख्खेगा।
يَا رَبَّ الْجُنُودِ، طُوبَى لِلإِنْسَانِ الْمُتَّكِلِ عَلَيْكَ. | ١٢ 12 |
ऐ लश्करों के ख़ुदावन्द! मुबारक है वह आदमी जिसका भरोसा तुझ पर है।