< المَزامِير 120 >
تَرْنِيمَةُ الْمَصَاعِدِ صَرَخْتُ إِلَى الرَّبِّ فِي ضِيقِي فَاسْتَجَابَ لِي. | ١ 1 |
मैंने मुसीबत में ख़ुदावन्द से फ़रियाद की, और उसने मुझे जवाब दिया।
نَجِّ نَفْسِي يَا رَبُّ مِنَ الشِّفَاهِ الْكَاذِبَةِ وَاللِّسَانِ الْمُنَافِقِ. | ٢ 2 |
झूटे होंटों और दग़ाबाज़ ज़बान से, ऐ ख़ुदावन्द, मेरी जान को छुड़ा।
أَيُّ نَفْعٍ يَأْتِينِي مِنَ اللِّسَانِ الغَشَّاشِ؟ | ٣ 3 |
ऐ दग़ाबाज़ ज़बान, तुझे क्या दिया जाए? और तुझ से और क्या किया जाए?
إِنَّهُ كَسِهَامِ الْجَبَّارِ الحَادَّةِ وَكَالْجَمْرِ الأَحْمَرِ الْمُلْتَهِبِ. | ٤ 4 |
ज़बरदस्त के तेज़ तीर, झाऊ के अंगारों के साथ।
وَيْلِي لأَنِّي تَغَرَّبْتُ فِي مَاشِكَ، وَسَكَنْتُ فِي خِيَامِ قِيدَارَ. | ٥ 5 |
मुझ पर अफ़सोस कि मैं मसक में बसता, और क़ीदार के ख़ैमों में रहता हूँ।
طَالَ سَكَنِي مَعَ أُنَاسٍ يُبْغِضُونَ السَّلامَ. | ٦ 6 |
सुलह के दुश्मन के साथ रहते हुए, मुझे बड़ी मुद्दत हो गई।
أَنَا رَجُلُ سَلامٍ، وَكُلَّمَا دَعَوْتُ إِلَيْهِ هَبُّوا هُمْ لِلْحَرْبِ. | ٧ 7 |
मैं तो सुलह दोस्त हूँ। लेकिन जब बोलता हूँ तो वह जंग पर आमादा हो जाते हैं।