< المَزامِير 120 >
تَرْنِيمَةُ الْمَصَاعِدِ صَرَخْتُ إِلَى الرَّبِّ فِي ضِيقِي فَاسْتَجَابَ لِي. | ١ 1 |
(Sang til Festrejserne.) Jeg råbte til HERREN i Nød, og han svarede mig.
نَجِّ نَفْسِي يَا رَبُّ مِنَ الشِّفَاهِ الْكَاذِبَةِ وَاللِّسَانِ الْمُنَافِقِ. | ٢ 2 |
HERRE, udfri min Sjæl fra Løgnelæber, fra den falske Tunge!
أَيُّ نَفْعٍ يَأْتِينِي مِنَ اللِّسَانِ الغَشَّاشِ؟ | ٣ 3 |
Der ramme dig dette og hint, du falske Tunge!
إِنَّهُ كَسِهَامِ الْجَبَّارِ الحَادَّةِ وَكَالْجَمْرِ الأَحْمَرِ الْمُلْتَهِبِ. | ٤ 4 |
Den stærkes Pile er hvæsset ved glødende Gyvel.
وَيْلِي لأَنِّي تَغَرَّبْتُ فِي مَاشِكَ، وَسَكَنْتُ فِي خِيَامِ قِيدَارَ. | ٥ 5 |
Ve mig, at jeg må leve som fremmed i Mesjek, bo iblandt Kedars Telte!
طَالَ سَكَنِي مَعَ أُنَاسٍ يُبْغِضُونَ السَّلامَ. | ٦ 6 |
Min Sjæl har længe nok boet blandt Folk, som hader Fred.
أَنَا رَجُلُ سَلامٍ، وَكُلَّمَا دَعَوْتُ إِلَيْهِ هَبُّوا هُمْ لِلْحَرْبِ. | ٧ 7 |
Jeg vil Fred; men taler jeg, vil de Krig!