< يُونان 4 >
فَأَثَارَ ذَلِكَ غَيْظَ يُونَانَ وَغَضَبَهُ الشَّدِيدَيْنِ. | ١ 1 |
परंतु योनाह को परमेश्वर का यह निर्णय गलत लगा, और वह क्रोधित हुआ.
وَصَلَّى إِلَى الرَّبِّ قَائِلاً: «أَيُّهَا الرَّبُّ، أَلَيْسَ هَذَا مَا قُلْتُهُ عِنْدَمَا كُنْتُ فِي بِلادِي؟ لِهَذَا أَسْرَعْتُ إِلَى الْهَرَبِ إِلَى تَرْشِيشَ، لأَنِّي عَرَفْتُ أَنَّكَ إِلَهٌ رَحِيمٌ رَؤُوفٌ بَطِيءُ الْغَضَبِ كَثِيرُ الإِحْسَانِ، تَرْجِعُ عَنِ الْعِقَابِ. | ٢ 2 |
उसने याहवेह से यह प्रार्थना की, “हे याहवेह, क्या मैंने यह नहीं कहा था, जब मैं अपने घर में था? इसलिये तरशीश को भागने के द्वारा मैंने अनुमान लगाने की कोशिश की. मैं जानता था कि आप अनुग्रहकारी और कृपालु परमेश्वर हैं; आप क्रोध करने में धीमा और प्रेम से भरे हुए हैं; आप ऐसे परमेश्वर हैं जो विपत्ति भेजने से अपने आपको रोकते हैं.
وَالآنَ دَعْنِي أَيُّهَا الرَّبُّ أَلْفَظُ أَنْفَاسِي لأَنَّهُ خَيْرٌ لِي أَنْ أَمُوتَ مِنْ أَنْ أَحْيَا». | ٣ 3 |
तब हे याहवेह, मेरे प्राण ले लें, क्योंकि मेरे लिये जीवित रहने से मर जाना भला है.”
فَقَالَ الرَّبُّ: «أَأَنْتَ مُحِقٌّ فِي غَضَبِكَ؟» | ٤ 4 |
परंतु याहवेह ने उत्तर दिया, “क्या तुम्हारा क्रोधित होना उचित है?”
وَخَرَجَ يُونَانُ مِنْ نِينَوَى وَجَلَسَ شَرْقِيَّ الْمَدِينَةِ، بَعْدَ أَنْ نَصَبَ لِنَفْسِهِ مَظَلَّةً جَلَسَ تَحْتَ ظِلِّهَا يَرْقُبُ مَا يَجْرِي عَلَى الْمَدِينَةِ. | ٥ 5 |
तब योनाह बाहर जाकर शहर के पूर्व की ओर एक जगह में बैठ गया. वहां उसने अपने लिये एक छत बनायी और उसकी छाया में बैठकर इंतजार करने लगा कि अब शहर का क्या होगा.
فَأَعَدَّ الرَّبُّ الإِلَهُ يَقْطِينَةً نَمَتْ وَارْتَفَعَتْ حَتَّى ظَلَّلَتْ رَأْسَ يُونَانَ لِتَقِيَهُ مِنْ شِدَّةِ الْحَرِّ فَلا يُؤْذِيَهُ. فَابْتَهَجَ يُونَانُ بِالْيَقْطِينَةِ ابْتِهَاجاً عَظِيماً. | ٦ 6 |
तब याहवेह परमेश्वर ने एक पत्तीवाले पौधे को उगाया और उसे योनाह के ऊपर बढ़ाया ताकि योनाह के सिर पर छाया हो और उसे असुविधा न हो; योनाह उस पौधे के कारण बहुत खुश था.
وَلَكِنْ فِي فَجْرِ الْيَوْمِ التَّالِي أَعَدَّ اللهُ دُودَةً قَرَضَتِ الْيَقْطِينَةَ فَجَفَّتْ. | ٧ 7 |
पर अगले दिन बड़े सबेरे परमेश्वर ने एक कीड़े को भेजा, जिसने उस पौधे को कुतर डाला, जिससे वह पौधा मुरझा गया.
فَلَمَّا أَشْرَقَتِ الشَّمْسُ، أَرْسَلَ اللهُ رِيحاً شَرْقِيَّةً حَارَّةً لَفَحَتْ رَأْسَ يُونَانَ، فَأَصَابَهُ الإِعْيَاءُ وَتَمَنَّى لِنَفْسِهِ الْمَوْتَ قَائِلاً: «خَيْرٌ لِي أَنْ أَمُوتَ مِنْ أَنْ أَظَلَّ حَيًّا». | ٨ 8 |
जब सूरज निकला, तब परमेश्वर ने एक झुलसाती पूर्वी हवा चलाई, और योनाह के सिर पर सूर्य की गर्मी पड़ने लगी, जिससे वह मूर्छित होने लगा. वह मरना चाहता था, और उसने कहा, “मेरे लिये जीवित रहने से मर जाना भला है.”
فَقَالَ اللهُ لِيُونَانَ: «أَأَنْتَ مُحِقٌّ فِي غَضَبِكَ مِنْ أَجْلِ الْيَقْطِينَةِ؟» فَأَجَابَ: «أَنَا مُحِقٌّ فِي غَضَبِي حَتَّى الْمَوْتِ». | ٩ 9 |
परंतु परमेश्वर ने योनाह से कहा, “क्या इस पौधे के बारे में तुम्हारा गुस्सा होना उचित है?” योनाह ने उत्तर दिया, “बिलकुल उचित है. मैं इतने गुस्से में हूं कि मेरी इच्छा है कि मैं मर जाऊं.”
فَقَالَ الرَّبُّ: «لَقَدْ أَشْفَقْتَ أَنْتَ عَلَى الْيَقْطِينَةِ الَّتِي لَمْ تَتْعَبْ فِي تَنْمِيَتِهَا وَتَرْبِيَتِهَا. هَذِهِ الْيَقْطِينَةُ الَّتِي تَرَعْرَعَتْ فِي لَيْلَةٍ وَذَوَتْ فِي لَيْلَةٍ. | ١٠ 10 |
परंतु याहवेह ने कहा, “तुम इस पौधे के लिए चिंतित हो, जिसकी तुमने न तो कोई देखभाल की और न ही तुमने उसे बढ़ाया. यह रातों-रात निकला और रातों-रात यह मर भी गया.
أَفَلا أُشْفِقُ أَنَا عَلَى نِينَوَى الْمَدِينَةِ الْعَظِيمَةِ الَّتِي يُقِيمُ فِيهَا أَكْثَرُ مِنْ مِئَةٍ وَعِشْرِينَ أَلْفَ شَخْصٍ مِمَّنْ لَا يُفَرِّقُونَ بَيْنَ يَمِينِهِمْ وَشِمَالِهِمْ، فَضْلاً عَمَّا فِيهَا مِنْ بَهَائِمَ كَثِيرَةٍ؟». | ١١ 11 |
तो फिर क्या मैं इस बड़े शहर नीनवेह की चिंता न करूं? जिसमें एक लाख बीस हजार से अधिक मनुष्य रहते हैं, जो अपने दाएं तथा बाएं हाथ के भेद को भी नहीं जानते—और इस शहर में अनेक पशु भी हैं.”