< أيُّوب 9 >
«قَدْ عَلِمْتُ يَقِيناً أَنَّ الأَمْرَ كَذَلِكَ، وَلَكِنْ كَيْفَ يَتَبَرَّرُ الإِنْسَانُ أَمَامَ اللهِ؟ | ٢ 2 |
दर हक़ीक़त में मैं जानता हूँ कि बात यूँ ही है, लेकिन इंसान ख़ुदा के सामने कैसे रास्तबाज़ ठहरे।
إِنْ شَاءَ الْمَرْءُ أَنْ يَتَحَاجَّ مَعَهُ، فَإِنَّهُ يَعْجِزُ عَنِ الإِجَابَةِ عَنْ حُجَّةٍ مِنْ أَلْفٍ. | ٣ 3 |
अगर वह उससे बहस करने को राज़ी भी हो, यह तो हज़ार बातों में से उसे एक का भी जवाब न दे सकेगा।
هُوَ حَكِيمُ الْقَلْبِ وَعَظِيمُ الْقُوَّةِ، فَمَنْ تَصَلَّبَ أَمَامَهُ وَسَلِمَ؟ | ٤ 4 |
वह दिल का 'अक़्लमन्द और ताक़त में ज़ोरआवर है, किसी ने हिम्मत करके उसका सामना किया है और बढ़ा हो।
هُوَ الَّذِي يُزَحْزِحُ الْجِبَالَ، فَلا تَدْرِي حِينَ يَقْلِبُهَا فِي غَضَبِهِ. | ٥ 5 |
वह पहाड़ों को हटा देता है और उन्हें पता भी नहीं लगता वह अपने क़हर में उलट देता है।
هُوَ الَّذِي يُزَعْزِعُ الأَرْضَ مِنْ مُسْتَقَرِّهَا فَتَتَزَلْزَلُ أَعْمِدَتُهَا. | ٦ 6 |
वह ज़मीन को उसकी जगह से हिला देता है, और उसके सुतून काँपने लगते हैं।
هُوَ الَّذِي يُصْدِرُ أَمْرَهُ إِلَى الشَّمْسِ فَلا تُشْرِقُ، وَيَخْتِمُ عَلَى النُّجُومِ. | ٧ 7 |
वह सूरज को हुक्म करता है और वह तुलू' नहीं होता है, और सितारों पर मुहर लगा देता है
يَبْسُطُ وَحْدَهُ السَّمَاوَاتِ، وَيَمْشِي عَلَى أَعَالِي الْبَحْرِ. | ٨ 8 |
वह आसमानों को अकेला तान देता है, और समन्दर की लहरों पर चलता है
هُوَ الَّذِي صَنَعَ النَّعْشَ وَالْجَبَّارَ وَالثُّرَيَّا وَمَخَادِعَ الْجَنُوبِ، | ٩ 9 |
उसने बनात — उन — नाश और जब्बार और सुरैया और जुनूब के बुजों' को बनाया।
صَانِعُ عَظَائِمَ لَا تُسْتَقْصَى وَعَجَائِبَ لَا تُحْصَى. | ١٠ 10 |
वह बड़े बड़े काम जो बयान नहीं हो सकते, और बेशुमार अजीब काम करता है।
اللهُ يَمُرُّ بِي فَلا أَرَاهُ وَيَجْتَازُ فَلا أَشْعُرُ بِهِ. | ١١ 11 |
देखो, वह मेरे पास से गुज़रता है लेकिन मुझे दिखाई नहीं देता; वह आगे भी बढ़ जाता है लेकिन मैं उसे नहीं देखता।
إِذَا خَطَفَ مَنْ يَرُدُّهُ، أَوْ يَقُولُ لَهُ: مَاذَا تَفْعَلُ؟ | ١٢ 12 |
देखो, वह शिकार पकड़ता है; कौन उसे रोक सकता है? कौन उससे कहेगा कि तू क्या करता है?
لَا يَرُدُّ اللهُ غَضَبَهُ؛ تَخْضَعُ لَهُ كِبْرِيَاءُ الأَشْرَار | ١٣ 13 |
“ख़ुदा अपने ग़ुस्से को नहीं हटाएगा। रहब' के मददगार उसके नीचे झुकजाते हैं।
فَكَيْفَ إِذاً يُمْكِنُنِي أَنْ أُجِيبَهُ، وَأَتَخَيَّرَ كَلِمَاتِي فِي مُخَاطَبَتِهِ؟ | ١٤ 14 |
फिर मेरी क्या हक़ीक़त है कि मैं उसे जवाब दूँ और उससे बहस करने को अपने लफ़्ज़ छाँट छाँट कर निकालूँ?
لأَنِّي عَلَى الرَّغْمِ مِنْ بَرَاءَتِي لَا أَقْدِرُ أَنْ أُجِيبَهُ، إِنَّمَا أَسْتَرْحِمُ دَيَّانِي. | ١٥ 15 |
उसे तो मैं अगर सादिक़ भी होता तो जवाब न देता। मैं अपने मुख़ालिफ़ की मिन्नत करता।
حَتَّى لَوْ دَعَوْتُ وَاسْتَجَابَ لِي، فَإِنِّي لَا أُصَدِّقُ أَنَّهُ قَدِ اسْتَمَعَ لِي. | ١٦ 16 |
अगर वह मेरे पुकारने पर मुझे जवाब भी देता, तोभी मैं यक़ीन न करता कि उसने मेरी आवाज़ सुनी।
يَسْحَقُنِي بِالْعَاصِفَةِ وَيُكْثِرُ جُرُوحِي مِنْ غَيْرِ سَبَبٍ. | ١٧ 17 |
वह तूफ़ान से मुझे तोड़ता है, और बे वजह मेरे ज़ख़्मों को ज़्यादा करता है।
لَا يَدَعُنِي أَلْتَقِطُ أَنْفَاسِي بَلْ يُشْبِعُنِي مَرَائِرَ. | ١٨ 18 |
वह मुझे दम नहीं लेने देता, बल्कि मुझे तल्ख़ी से भरपूर करता है।
إِنْ كَانَتِ الْقَضِيَّةُ قَضِيَّةَ قُوَّةٍ، فَهُوَ يَقُولُ مُتَحَدِّياً: هَأَنَذَا. وَإِنْ كَانَتِ الْقَضِيَّةُ قَضِيَّةَ الْقَضَاءِ، فَمَنْ يُحَاكِمُهُ؟ | ١٩ 19 |
अगर ज़ोरआवर की ताक़त का ज़िक्र हो, तो देखो वह है। और अगर इन्साफ़ का, तो मेरे लिए वक़्त कौन ठहराएगा?
إِنْ ظَنَنْتُ نَفْسِي بَرِيئاً، فَإِنَّ فَمِي يَحْكُمُ عَلَيَّ، وَإِنْ كُنْتُ كَامِلاً، فَإِنَّهُ يُجَرِّمُنِي. | ٢٠ 20 |
अगर मैं सच्चा भी हूँ, तोभी मेरा ही मुँह मुझे मुल्ज़िम ठहराएगा। और अगर मैं कामिल भी हूँ तोभी यह मुझे आलसी साबित करेगा।
أَنَا كَامِلٌ، لِذَا لَا أُبَالِي بِنَفْسِي، أَمَّا حَيَاتِي فَقَدْ كَرِهْتُهَا. | ٢١ 21 |
मैं कामिल तो हूँ, लेकिन अपने को कुछ नहीं समझता; मैं अपनी ज़िन्दगी को बेकार जानता हूँ।
وَلَكِنَّ الأَمْرَ سِيَّانِ، لِذَلِكَ قُلْتُ: إِنَّهُ يُفْنِي الْكَامِلَ والشِّرِّيرَ عَلَى حَدٍّ سَواءٍ! | ٢٢ 22 |
यह सब एक ही बात है, इसलिए मैं कहता हूँ कि वह कामिल और शरीर दोनों को हलाक कर देता है।
عِنْدَمَا تُؤَدِّي ضَرَبَاتُ السَّوْطِ إِلَى الْمَوْتِ الْمُفَاجِئِ يَسْخَرُ مِنْ بُؤْسِ الأَبْرِيَاءِ | ٢٣ 23 |
अगर वबा अचानक हलाक करने लगे, तो वह बेगुनाह की आज़माइश का मज़ाक़ उड़ाता है।
فَقَدْ عَهِدَ بِالأَرْضِ إِلَى يَدِ الشِّرِّيرِ، وَأَعْمَى عُيُونَ قُضَاتِهَا. إِنْ لَمْ يَكُنْ هُوَ الْفَاعِلُ، إِذاً مَنْ هُوَ؟ | ٢٤ 24 |
ज़मीन शरीरों को हवाले कर दी गई है। वह उसके हाकिमों के मुँह ढाँक देता है। अगर वही नहीं तो और कौन है?
أَيَّامِي أَسْرَعُ مِنْ عَدَّاءٍ، تَفِرُّ مِنْ غَيْرِ أَنْ تُصِيبَ خَيْراً | ٢٥ 25 |
मेरे दिन हरकारों से भी तेज़रू हैं। वह उड़े चले जाते हैं और ख़ुशी नहीं देखने पाते।
تَمُرُّ كَسُفُنِ الْبَرْدِيِّ، وَكَنَسْرٍ يَنْقَضُّ عَلَى صَيْدِهِ. | ٢٦ 26 |
वह तेज़ जहाज़ों की तरह निकल गए, और उस उक़ाब की तरह जो शिकार पर झपटता हो।
إِنْ قُلْتُ: أَنْسَى ضِيقَتِي، وَأُطْلِقُ أَسَارِيرِي، وَأَبْتَسِمُ وَأُبْدِي بِشْراً، | ٢٧ 27 |
अगर मैं कहूँ, कि 'मैं अपना ग़म भुला दूँगा, और उदासी छोड़कर दिलशाद हूँगा,
فَإِنِّي أَظَلُّ أَخْشَى أَوْجَاعِي، عَالِماً أَنَّكَ لَنْ تُبْرِئَنِي. | ٢٨ 28 |
तो मैं अपने दुखों से डरता हूँ, मैं जानता हूँ कि तू मुझे बेगुनाह न ठहराएगा।
أَنَا مُسْتَذْنَبٌ، فَلِمَاذَا أُجَاهِدُ عَبَثاً؟ | ٢٩ 29 |
मैं तो मुल्ज़िम ठहरूँगा; फिर मैं 'तो मैं ज़हमत क्यूँ उठाऊँ?
وَحَتَّى لَوِ اغْتَسَلْتُ بِالثَّلْجِ وَنَظَّفْتُ يَدَيَّ بِالْمُنَظِّفَاتِ، | ٣٠ 30 |
अगर मैं अपने को बर्फ़ के पानी से धोऊँ, और अपने हाथ कितने ही साफ़ करूँ।
فَإِنَّكَ تَطْرَحُنِي فِي مُسْتَنْقَعٍ نَتِنٍ حَتَّى تَكْرَهَنِي ثِيَابِي | ٣١ 31 |
तोभी तू मुझे खाई में ग़ोता देगा, और मेरे ही कपड़े मुझ से घिन खाएँगे।
لأَنَّهُ لَيْسَ إِنْسَاناً مِثْلِي فَأُجَاوِبَهُ، وَنَمْثُلَ مَعاً لِلْمُحَاكَمَةِ. | ٣٢ 32 |
क्यूँकि वह मेरी तरह आदमी नहीं कि मैं उसे जवाब दूँ, और हम 'अदालत में एक साथ हाज़िर हों।
وَلَيْسَ مِنْ حَكَمٍ بَيْنَنَا يَضَعُ يَدَهُ عَلَى كِلَيْنَا. | ٣٣ 33 |
हमारे बीच कोई बिचवानी नहीं, जो हम दोनों पर अपना हाथ रख्खे।
لِيَكُفَّ عَنِّي عَصَاهُ فَلا يُرَوِّعَنِي رُعْبُهُ، | ٣٤ 34 |
वह अपनी लाठी मुझ से हटा ले, और उसकी डरावनी बात मुझे परेशान न करे।
عِنْدَئِذٍ أَتَكَلَّمُ مِنْ غَيْرِ أَنْ أَخْشَاهُ، لأَنَّ نَفْسِي بَرِيئَةٌ مِمَّا أُتَّهَمُ بِهِ. | ٣٥ 35 |
तब मैं कुछ कहूँगा और उससे डरने का नहीं, क्यूँकि अपने आप में तो मैं ऐसा नहीं हूँ।