< مزامیر 120 >
سرود زائران به هنگام بالا رفتن به اورشلیم. وقتی در زحمت بودم، از خداوند کمک خواستم و او به داد من رسید. | 1 |
मैंने मुसीबत में ख़ुदावन्द से फ़रियाद की, और उसने मुझे जवाब दिया।
ای خداوند مرا از دست دروغگویان و مردم حیلهگر نجات بده. | 2 |
झूटे होंटों और दग़ाबाज़ ज़बान से, ऐ ख़ुदावन्द, मेरी जान को छुड़ा।
ای حیلهگران، میدانید چه در انتظار شماست؟ | 3 |
ऐ दग़ाबाज़ ज़बान, तुझे क्या दिया जाए? और तुझ से और क्या किया जाए?
تیرهای تیز و اخگرهای داغ! | 4 |
ज़बरदस्त के तेज़ तीर, झाऊ के अंगारों के साथ।
شما مانند مردمان «ماشک» و خیمه نشینان «قیدار» شرور هستید. وای بر من که در بین شما زندگی میکنم! | 5 |
मुझ पर अफ़सोस कि मैं मसक में बसता, और क़ीदार के ख़ैमों में रहता हूँ।
از زندگی کردن در میان این جنگطلبان خسته شدهام. | 6 |
सुलह के दुश्मन के साथ रहते हुए, मुझे बड़ी मुद्दत हो गई।
من صلح را دوست دارم، اما آنان طرفدار جنگ هستند و به سخنان من گوش نمیدهند. | 7 |
मैं तो सुलह दोस्त हूँ। लेकिन जब बोलता हूँ तो वह जंग पर आमादा हो जाते हैं।